अठारह पापस्थान

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नवतत्त्वों में एक तत्त्व है पाप| जीव की अशुभ क्रियाएँ पाप कहलाती हैं| जीव सामान्यत : पाप तो कर लेता है, किन्तु पाप के परिणाम से सदा दु:खी व भयभीत रहता है| पापजन्य क्रियाएँ आत्मा को कलुषित तो करती ही हैं मोक्ष मार्ग से भी दूर रखती हैं, पाप क्रियाएँ और उनके पापमयी परिणाम परस्पर कारण – कार्यरूप हैं| पापजन्य क्रियाएँ भावात्मक भी हो सकती हैं और द्रव्यात्मक भी हो सकती हैं| भावात्मक क्रिया में मन से पाप क्रियाएँ होती रहती हैं और द्रव्यात्मक में मन के साथ – साथ वचन व काय की भी पापमयी प्रवृत्ति बनी रहती है| पाप तत्त्व को हेय माना गया है| अत : यह त्यागने योग्य है| जैनागम में पापजन्य क्रियाओं के अठारह मुख्य कारण बताए गए हैं| इन कारणों को पापस्थान भी कहते हैं| अठारह पापस्थान इस प्रकार से हैं –

1.प्राणातिपात – जीव के दस प्रकार के प्राणों में से किसी भी प्रकार के प्राण का घात करना|

2.मृषावाद – असत्य वचन बोलना, वचन की मर्यादा को भंग करना|

3.अदत्तादान – चोरी करना, मालिक की आज्ञा के बिना वस्तु को उठाकर प्रयोग करना|

4.मैथुन – मैथुन का सेवन करना| स्त्री – पुरूष सम्बन्धी इन्द्रिय विषय सुख भोगना|

5.परिग्रह – सांसारिक पदार्थों का संग्रह करना, उनमें आसक्ति रखना|

6.क्रोध – पदार्थों के प्रति द्वेष भाव रखकर क्रोध करना|

7.मान – द्वेषवश मान, अभिमान या घमण्ड कर पापकर्म का बंध बाँधना|

8.माया – कपट या छल का प्रयोग करना| जैसे बगुला पानी में एक पैर पर चुपचाप खड़ा होकर मछलियाँ पकड़ता है| सीधा खड़ा हुआ वह बहुत ही भला लगता है, परन्तु उसके मन में कपट भरा रहता है|

9.लोभ – लोभ – लालच करना तथा तृष्णा के वशीभूत होकर पापकर्म का बंध बाँधना|

10.राग – सांसारिक पदार्थों पर राग – आसक्ति या मोह करते हुये पापकर्म का बंध बाँधना|

11.द्वेष – पदार्थों के प्रति द्वेष, ईर्ष्या, घृणा आदि दूषित भावनाओं को पैदा कर पापकर्म का बंध बाँधना|

12.कलह – क्लेश – कलह, लड़ाई – झगड़ा करने की प्रवृत्ति, जिसके कारण इस पापकर्म का बंध बाँधना है|

13.अभ्याख्यान – अज्ञानता या मोहवश दूसरों पर मिथ्या दोषारोपण करना|

14.पैशुन्य – दूसरों की चुगली करना|

15.पर-परिवाद – पर-निंदा करना|

16.रति – अरति – भोगों में प्रीति – रूचि और संयम में अप्रीति – अरूचि रखना|

17.माया मृषा – छल – कपटपूर्वक झूठ बोलना, झूठ अभिलेख तैयार कराना|

18.मिथ्यादर्शन शल्य – मिथ्यात्व को प्रश्रय देना, तत्त्वों के यथार्थ स्वरूप के प्रति विपरीत श्रध्दान रखना, अधर्म को धर्म मानना| कुगुरू को सुगुरू मानना, दुर्व्यसनों में सुख मानना|

इस प्रकार ये अठारह पापस्थान संसारी जीवों को यह दर्शाते हैं कि इन क्रियाओं को करने से पापकर्म का बंध बाँधता है| अत:इन क्रियाओं से मुक्त रहकर पुण्यमयी क्रियाओं को करते हुए मोक्ष की ओर सतत प्रयत्नशील रहना ही सार्थक है|

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