लोक – अलोक

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सामान्य बोलचाल की भाषा में संसारी जीव जहाँ रहते हैं, वह स्थान या क्षेत्र लोक कहलाता है, परन्तु जैनागम में लोक की जो अवधारणा है, उससे भिन्न है|
धम्मो अधम्मो आगासे कालो पुग्गल जंतवो|
एहि लोगोत्ति पन्नत्ति पन्नत्तो जिणोहिवरदंसिहिं| |
-उत्तरा . 28/7
जहाँ धर्मास्तिकाय है, अधर्मास्तिकाय है, आकाशास्तिकाय है, काल वर्तमान है, पुद्गलास्तिकाय और अनन्त – अनन्त जीव समूह रूप जीवास्तिकाय विद्यमान हैं| सर्वज्ञ जिनेश्वर देवों ने उसे ‘लोक’ कहा है|
इसी तथ्य को आचार्य उमास्वाति ने एक सूत्र में इस प्रकार कहा है- षडूद्रव्यात्मेको लोक: | जहाँ छह द्रव्य हैं, वह लोक है और जहाँ केवल एक आकाश द्रव्य ही है, वह अलोक है| भगवती सूत्र में गणधर गौतम भगवान महावीर से पूछते हैं- कति विहेणं भंते! लोए पण्णत्ते? भंते! लोक कितने प्रकार के हैं? भगवान महावीर फरमाते हैं कि लोक चार प्रकार के हैं –
(1) द्रव्य लोक – जहाँ जीव और अजीव हैं वह द्रव्य लोक है|
(2) क्षेत्र लोक – ऊर्ध्वलोक , मध्यलोक, अधोलोक या यह सम्पूर्ण लोक जितने आकाश प्रदेश में स्थित
(3) काल लोक – समय , आवलिका, मुहूर्त्त, दिन, रात, मास, आदि तथा यह लोक कब तक रहेगा? लोक की आदी – अन्त है या नहीं? आदि प्रश्नों का विचार|
(4) भाव लोक – कषाय, राग – द्वेष, समता आदि भावात्मक लोक|
यहाँ हम द्रव्य के आधार पर लोक की व्याख्या करेंगे| धर्म और अधर्म द्रव्य के अभाव के कारण अलोक में जीव और पुद्गलों का अभाव रहता है, क्योंकि ये दोनों द्रव्य जीव और पुद्गल को गति और स्थिति में सहायक हैं| इस प्रकार लोक और अलोक में सीमा – रेखा खींचने वाले धर्म और अधर्म ये दो ही द्रव्य हैं| अब हम लोक में विद्यमान तत्त्वों पर विस्तार से चर्चा करेंगे|
जीव तत्त्व – जिसमें चेतना तथा उपयोग होता है वह जीव है| जीव दो प्रकार के हैं – (1) सिध्द – जो कर्म – बन्धन से मुक्त हैं वे सिध्द जीव हैं| (2) संसारी – जो कर्म – बन्धन के कारण संसार में परिभ्रमण करते हैं वे संसारी जीव हैं| ये दो प्रकार के होते हैं – (1) त्रस – चलने – फिरने वाले जीव त्रस हैं| ये पाँच प्रकार के होते हैं – द्वीन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक| (2) स्थावर – एक स्थान पर स्थिर रहने वाले जीव स्थावर हैं| यह एक इन्द्रिय जीव होता है|
अजीव तत्त्व – चेतना और उपयोग लक्षण से रहित अजीव होता है| अजीव तत्त्व पाँच प्रकार का होते हैं – (1) धर्मास्तिकाय – जीव और पुद्गल को गति करने में सहायक| (2) अधर्मास्तिकाय – उनको ठहरने में सहायक| (3) आकाशास्तिकाय – सभी द्रव्यों को आश्रय देने में सहायक| (4) पुद्गलास्तिकाय – जिसमें स्पर्श, रस, गंध और वर्ण हों| इसके बीस भेद हैं| (5) काल – दिन – रात आदि का जो कारण है, वह काल है| काल की दृष्टि से लोक अनादि निधन है, शाश्वत है इसे न किसी ने बनाया है और न यह कभी नष्ट होगा| यह तो स्वत: ध्रुव, नित्य, शाश्वत, अक्षय, अवस्थित है|
उपरिक्त सभी षट्द्रव्य जहाँ है, वह लोक कहलाता है| जहाँ केवल अकाशद्रव्य है, वह स्थान अलोक कहलाता है|

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