चौदह राजलोक

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द्रव्य लोक की चर्चा हमने पिछले अध्याय में की है| अब क्षेत्र के आधार पर समझेंगे कि लोक क्या है?

आलोक के बीचोंबीच लोक के स्थित है| लोक के विषय में जैनागम कहते हैं कि यह वैशाख संस्थान या सुप्रतिष्ठक संस्थान सदृश है अर्थात् पहले नीचे विस्तृत, मध्य में सँकरा और ऊपर मृदंगाकार जैसा है| ऊर्ध्वलोक मृदंग की तरह है, मध्यलोक बिना किनारी वाली झालर सदृश है तथा अधोलोक उल्टे शराब के गिलास की तरह है| सम्पूर्ण लोक नीचे से लेकर ऊपर तक चौदह राजों या चौदह रज्जुओं में विभक्त है| इसलिये इसे चौदह राजलोक भी कहा जाता है| एक राज असंख्यात कोटाकोटि योजन प्रमाण वाला आकाश है| इस प्रकार चौदह राज असंख्यात कोटाकोटि योजन प्रमाण वाला सम्पूर्ण आकाश, लोकाकाश है| लोक के तीन भाग किए गए हैं| जिसमें ऊर्ध्वलोक सात रज्जु से कुछ कम अठारह सौ योजन में है, मध्यलोक अठारह सौ योजन प्रमाण ऊँचा है तथा अधोलोक सात रज्जु से कुछ अधिक है| लोक के मध्य भाग में त्रस नाड़ी है जो एक राज चौड़ी और चौदह राज लम्बी स्तम्भ की तरह है, जिसमें त्रस और स्थावर दोनों प्रकार के जीव निवास करते हैं|

1.अधोलोक – यह मध्यलोक के नीचे का स्थान है| यहाँ चौरासी लाख नरकावास (नारक जीवों का निवास) होने के कारण अधोलोक को नरक लोक भी कहा जाता है| नरक लोक में सात पृथ्वियाँ बतायी गई हैं|

यथा –

1.रत्नप्रभा,

2.शर्कराप्रभा,

3. बालुकाप्रभा,

4. पंकप्रभा,

5. धूमप्रभा,

6. तम:प्रभा,

7. महातम:प्रभा|

इन पृथ्वियों में प्रत्येक के साथ जो प्रभा शब्द जुड़ा है, वह इनके रंग को प्रदर्शित करता है| यह सातों पृथ्वियाँ तीन वात वलय – घनोदधि, घनवात तथा तनुवात और आकाश पर स्थित हैं, जो एक – दूसरे के नीचे क्रमश: अधिक विस्तार पाती चली गई हैं| नरक के नीचे आकाश है| वह भी एक प्रकार का वायु है| आकाशास्तिकाय नहीं|

2. मध्यलोक – रत्नप्रभा पृथवी से 1,000 योजन ऊपर मध्यलोक स्थित है| इसका आकार चूड़ी की आकृति जैसा गोल है| ऊचाँई 1,800 योजना तथा चौड़ाई एक राजु विस्तार है| इसे तिर्यक लोक या तिर्च्छालोक भी कहते हैं| मध्यलोक में ज्योतिष चक्र, मेरू पर्वत, जम्बू द्वीप आदि असंख्य द्वीप और समुद्र हैं| इसमें द्वीप समुद्र को और समुद्र द्वीप को परस्पर घेरे हुए हैं| मध्यलोक के मध्य में जम्बूद्वीप है, फिर लवण समुद्र है, फिर एक द्वीप है और फिर समुद्र है| इसी क्रम से चलते हुए सबसे अन्तिम स्व्यभूरमण नामक द्वीप है और स्व्यभूरमण नाम का समुद्र उसे घेरे हुए है|

3.ऊर्ध्वलोक – मध्यलोक के ऊपर का भाग ऊर्ध्वलोक कहलाता है| यह मध्यलोक से नौ सौ योजन ऊपर है| ऊर्ध्वलोक में देवों का निवास है| देवताओं के निवास के कारण इसे देवलोक भी कहा जाता है| देवलोकों की संख्या बारह है| पहला, दूसरा तथा तीसरा, चौथा देवलोक एक – दूसरे के सामने हैं| इसके पश्चात् पाँच से आठ तक चार कल्प विमान एक – दूसरे के ऊपर हैं| फिर नौ , दस, ग्यारह, बारह – ये चार विमान प्रथम चार की तरह अर्ध – चन्द्राकार स्थिति में स्थित है| बारहवें देवलोक के ऊपर नवग्रैवेयक देवलोक है| इसके ऊपर पाँच अनुत्तर विमान हैं| इसके बारह योजन ऊपर 45 लाख योजन वाली सिध्दशिला है| यह सिध्दशिला एक करोड़ बयालीस लाख तीस हजार दो सौ उनचास योजन विस्तार वाली है| सिध्दशिला के एक योजन ऊपर लोकान्त क्षेत्र है, जिसे लोकाग्र कहा जाता है| यहाँ सिध्द आत्माओं का निवास है|

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