श्रमण और श्रावक दोनों के लिए आवश्यकों का नित्य और नियमित पालन जरूरी है, क्योंकि आवश्यक आत्मा में लगे दोषों के परिमार्जन अर्थात् आत्म – शोधन का एक उत्तम उपाय है| इससे मन भौतिक से अध्यात्म की ओर प्रवृत्त होता है| अवश्य किए जाने वाले ये आवश्यक छह अंगों में विभक्त हैं| यथा –
1.सामायिक – साधना के क्षेत्र में सबसे पहले समता का होना आवश्यक है| समत्व भाव आने पर ही आत्मिक गुण प्रकाशित होते हैं| इसलिए सामायिक श्रमण और श्रावक दोनों के लिए आवश्यक है| सामायिक को सावद्य योग विरति भी कहा गया है| क्योंकि इसमें पापकारी प्रवृत्तियों का परित्याग किया जाता है| सामायिक में इन सबसे विरत रहकर आत्म – स्वभाव में समतापूर्वक रहना होता है| सामने के चित्र में सामायिक लेने की मुद्रा दी गई है| दोनों हाथ जोड़कर शांत मन से सामायिक ग्रहण की जाती है|
2.चतुर्विंशति स्तवन – इसे उत्कीर्तन भी कहा जाता है| इसमें चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति की जाती है| तीर्थंकर देवों के गुणों का स्तवन करना, उत्कीर्तन करना है| तीर्थंकर की स्तुति से कर्मों का पूर्णत : उच्छेदन ठीक उसी प्रकार से हो जाता है जिस प्रकार एक चिनगारी से सूखे पत्तों का ढ़ेर भस्म हो जाता है|
3.वंदन – इसे गुण्वत् प्रतिपत्ति या गुरू वंदना भी कहते हैं| वंदन विनय का प्रतीक है और धर्म का मूल है| इसमें श्रावक सद्गुरूओं की विनयपूर्वक वंदना करता है| उसकी यह वंदना बत्तीस दोषों से रहित होती है| वंदना से अहंकार का विसर्जन होता है| वंदना में निष्काम भक्ति की प्रधानता रहती है| ऐसी भक्ति से मन निर्मल बनता है|
4.प्रतिक्रमण – प्रतिक्रमण पापों व दोषों की आलोचना है| इसमें किये गये पापों की आलोचना, निंदना – पश्चात्ताप, गर्हणा आदि की जाती है और भविष्य में पुन: पाप न करने का संकल्प भी लिया जाता है| उदाहरण के लिए जब साधक प्रमादादि किसी कारण से समभाव से च्युत होता हुआ पापकर्म में लिप्त होने लगता है तो इस आवश्यक के द्वारा वह पुन: समभाव की स्थिति में लौट आता है और पापों से निवृत्ति पा लेता है|
5.कायोत्सर्ग – कायोत्सर्ग शरीर के प्रति ममत्व का त्याग है| सतत सावधान या जागरूक रहने पर भी प्रमादादि के कारण जो दोष साधना में लग जाते हैं और प्रतिक्रमण द्वारा दूर नहीं हो पाते, उन्हें कायोत्सर्ग से दूर किया जाता है| कायोत्सर्ग एक प्रकार का मरहम है जो पापरूपी घाव को ठीक कर देता है| अध्यात्म साधाना में काया का सबसे बड़ा अवरोध है- मोह| कायोत्सर्ग इस अवरोध को दूर करने का एक उपक्रम है|
6.प्रत्याख्यान – इसमें विविध व्रतों को धारण किया जाता है, जिससे श्रावक में इच्छाओं व तृष्णाओं का शमन हो सके और संयम या तप की ओर प्रवृत्ति बढ़े|