अष्टकर्म : ज्ञानावरण कर्म, दर्शनावरण कर्म, वेदनीय कर्म, मोहनीय कर्म, आयुष्य कर्म, नाम कर्म, गोत्र कर्म, अन्तराय कर्म

0
89

सामान्य बोलचाल की भाषा में कोई भी क्रिया कर्म कहलाती है| परन्तु जैन दर्शन में कर्म शब्द का अभिप्राय है कि जिस क्रिया से आत्मा पर कर्म वर्गणाओं का बंध हो, वही कर्म है| कर्मबन्धन के कारण आत्मा संसार में परिभ्रमण करती है| संसारी जीवों के राग – द्वेषात्मक परिणाम भावकर्म कहलाता हैं| जो कर्म – पुद्गल आत्म – प्रदेश से चिपक जाते हैं, वे द्रव्य कर्म कहलाते हैं| इन दोनों में कार्य – कारण भाव सम्बन्ध है| दोनों एक – दूसरे के निमित हैं| जीवात्मा आठ प्रकार के कर्मों से बँधा हुआ है – 1.ज्ञानावरण कर्म, 2.दर्शनावरण कर्म, 3.वेदनीय कर्म, 4. मोहनीय कर्म, 5. आयुष्य कर्म, 6.नाम कर्म, 7. गोत्र कर्म, 8. अन्तराय कर्म|

इनमें से ज्ञानावरण कर्म, दर्शनावरण कर्म, मोहनीय कर्म, अन्तराय कर्म घाती कर्म हैं और वेदनीय कर्म, आयुष्य कर्म, नामकर्म एवं गोत्र कर्म अघाती कर्म हैं| घाती कर्म आत्मा के मूल गुणों का घात करता है| अधाती कर्म आत्मा के मूल गुणों का घात नहीं करता है|

  • ज्ञानावरण कर्म – यह आत्मा के अनन्त ज्ञान गुण को प्रच्छन्न रखता है| इसका स्वभाव आँखों पर पट्टी बाँधने जैसा है| जिस प्रकार आँखों पर कुछ नहीं दिखाई देता है, उसी प्रकार इस कर्म के प्रभाव में जीवात्मा क्या ज्ञेय , हेय और उपादेय है? उसको जानने में असमर्थ रहता है| यह आत्मा के मूल गुण ज्ञान – शक्ति का घात करता है| इसके पाँच भेद या पाँच उत्तर प्रकृतियाँ हैं|
  • दर्शनावरण कर्म – यह कर्म जीवात्मा के दर्शन गुण को आवरित करता है| इसका स्वभाव द्वारपाल जैसा है| जिस प्रकार द्वारपाल के रोकने से व्यक्ति राजा के दर्शन नहीं कर सकता, वह उसे रोक देता है, उसी प्रकार इस कर्म के प्रभाव से आत्मा का दर्शन गुण अप्रकट रहता है| यह कर्म जीवात्मा की दर्शन शक्ति का घात करता है| इसके नौ भेद या नौ उत्तर प्रकृतियाँ हैं जो चार दर्शनावरण और पाँच निद्रा में विभक्त है|
  • वेदनीय कर्म – यह कर्म जीवात्मा को सांसारिक सुख – दु:खों की अनुभूति कराता है| यह जीवात्मा के अव्याबाध सुख को रोकता है| इसका स्वभाव शहद में लिपटी हुई छुरी जैसा है जो व्यक्ति को सुख – दु:ख दोनों का अनुभव कराती है| जिस प्रकार शहद में लिपटी हुई छुरी को व्यक्ति जब सेवन करता है तो शहद को खाने पर उसे सुख का अनुभव होता है किन्तु शहद सेवन करते – करते छुरी जब उसकी जीभ से लग जाती है और कट जाती है तो उसे दु:ख या कष्ट अनुभव होने लगता है| उसी प्रकार इस कर्म के प्रभाव से जीवात्मा सांसारिक सुखों व दुखों को भोगता है| इसके दो भेद या उत्तर प्रकृतियाँ हैं – 1. सातावेदनीय कर्म , 2.असातावेदनीय कर्म|
  • मोहनीय कर्म – यह जीवात्मा के सम्यक्त्व और चारित्र गुण का घात करता है जिसके कारण यह घाती कर्म है| इसका स्वभाव मदिरा जैसा है| जिस प्रकार मदिरा के नशे में मनुष्य अपने – पराए, अच्छे – बुरे का भेद नहीं कर पाता है, उसी प्रकार इस कर्म के प्रभाव से जीवात्मा स्व – पर की पहचान करने में असमर्थ है| वह अपना हिताहित नहीं सोच पाता| वह अपने यथार्थ स्वरूप पर न तो श्रध्दान कर पाता है और न उसमें रम ही पाता है| मोहनीय कर्म के 28 भेद या उत्तर प्रकृतियाँ हैं जो तीन दर्शन मोहनीय कर्म और पच्चीस चारित्र मोहनीय कर्म में परिगणित हैं|
  • आयुष्य, नाम, गोत्र, अन्तराय
  • 5. आयुष्य कर्म – यह जीवात्मा को एक पर्याय में टिकाए रखता है| यह कर्म जीवात्मा की अक्षय स्थिति गुण को रोके रखता है| इस कर्म से ही जीव की आयु का निर्धारण होता है| यह कर्म पुण्य और पाप दोनों में परिगणित हैं| शुभ आयु का कर्म पुण्य और अशुभ आयु का कर्म पाप है| इस कर्म का स्वभाव जंजीर या बेड़ी की तरह है, जिस प्रकार जंजीर से जकड़ा हुआ मनुष्य कहीं आ – जा नहीं सकता, उसे बन्दीगृह में ही रहना होता है, उसी प्रकार इस कर्म के प्रभाव से जीवात्मा आयुपर्यन्त वर्तमान शरीर में रहता है| इस कर्म के चार भेद या उत्तर प्रकृतियाँ हैं – 1. नारकायु, 2 .तिर्यंचायु, 3. मनुष्यायु, 4. देवायु| जीवात्मा इन गतियों में जन्म धारण कर जीवित रहता हैं| सभी प्रकार के आयुष्य कर्म बन्धन का मूल हेतु कुशील और अव्रत सेवन ही है| स्थानांग सूत्र में आयुष्य बन्ध के चार भेदों के चार – चार उपभेद कहे गये हैं|
  • 6. नाम कर्म – यह जीवात्मा की गति, जाति, शरीर को निर्धारित करता है| यह जीवात्मा के अरूपिता गुण को रोकता है और गति, यश – अपयश, सौभाग्य – दुर्भाग्य – वर्णादि को दर्शाता है| इसका स्वभाव चित्रकार के समान है| जिस प्रकार चित्रकार विभिन्न प्रकार के चित्र बनाता है, उसी प्रकार यह कर्म विभिन्न प्रकार के शरीरादि की संरचना करता है| यह कर्म जीवात्मा की निज शक्तियों का घात न करने के कारण, अघाति कर्म है| यह कर्म पुण्य और पाप दोनों में परिगणित है| शुभ नाम कर्म की अपेक्षा से पुण्य से पुण्य और अशुभ नाम कर्म की अपेक्षा से पाप है| नाम कर्म के 103 भेद हैं|
  • 7. गोत्र कर्म – यह कर्म जीवात्मा को ऊँच – नीच कुल में जन्म धारण कराता है| यह आत्मा के अगुरू – लघुता गुण को आच्छादित किए रहता है| नीच और उच्च कुल को दर्शाता है| यह अघाती कर्म है| यह पुण्य – पाप दोनों में परिगणित है| शुभ गोत्र की अपेक्षा से यह पुण्य और अशुभ गोत्र की अपेक्षा से यह पाप कर्म है| इसका स्वभाव कुम्भकार जैसा है, जिस प्रकार कुम्हार द्वारा निर्मित घड़ा आदि कुछ मिट्टी के बर्तन पूजा स्थान पर रखे जाने से पूजनीय और प्रशंसनीय बन जाते हैं और कुछ बर्तनों में मदिरा आदि भरने से निंदनीय भी बन जाते हैं, उसी प्रकार गोत्रकर्म जीवात्मा को ऊँच या उत्तम और नीच या हीन कुल में जन्म धारण कराता है| ऊँचे कुल में जन्मी जीवात्मा अच्छे आचरण के कारण पूजनीय और प्रशंसनीय हो जाती है जबकि हीन कुल में जन्मी जीवात्मा निन्द्य कर्म करने के कारण निंदनीय या अपूजनीय बन जाती है| गोत्र कर्म के दो भेद हैं|
  • 8. अन्तराय कर्म – यह कर्म जीवात्मा के दान, लाभ, भोग आदि के उत्साह में विघ्न या बाधा उत्पन्न करता है| यह जीवत्मा की अनन्त वीर्य आदि शक्ति का घात करने से घातिक कर्म है| पुण्य – पाप की दृष्टि से यह कर्म पापकर्म में परिगणित है| यह कर्म कृपणता, दरिद्रता, दुर्बलता आदि को दर्शाता है| इस कर्म का स्वभाव भण्डारी या कोषाध्यक्ष की तरह है जिस प्रकार राजा या कोष के मालिक की आज्ञा या इच्छा होने पर भी भण्डारी या कोषाध्यक्ष याचक को दानादि देने में बाधा उत्पन्न करता है, उसी प्रकार यह कर्म साधन – सामग्री होते हुए भी दान, लाभ, भोग आदि में विघ्न डालता है| अन्तराय कर्म के पाँच भेद या अत्तर प्रकृतियाँ हैं|
  • इस प्रकार अष्टकर्मों के अध्ययन से मनुष्य कर्म के स्वरूप की जानकारी प्राप्त कर अपना जीवन अशुभ से शुभ और शुभ से प्रशस्त शुभ – शुध्द परक जीवन व्यतीत करता हुआ इन अष्टकर्मों से विरत होकर स्व – पर का कल्याण कर सकता है|

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here