बारह भावना

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जैनधर्म, भावना पर आधारित है| जीवन की प्रत्येक क्रिया में भावना मूल है| यदि किसी मनुष्य की भावना राग – द्वेष से युक्त है तो उसकी क्रिया में पापबंध होता है और जब उसकी भावनाएँ विशुध्द हैं तो उसकी क्रिया में पुण्यबंध होता है| जैनधर्म में वैराग्य की ओर ले जाने वाली बारह भावनाओं का उल्लेख हुआ है| बारह भावनाओं का चिन्तन आस्रव का निरोध और संवर के उपाय कहे गए हैं| इन भावनाओं में से प्रारम्भ की चार भावनाएँ इस प्रकार हैं – 1. अनित्य भावना, 2. अशरण भावना, 3. संसार भावना, 4. एकत्व भावना 5. अन्यत्व भावना 6. अशुचि भावना 7. आस्रव भावना 8. संवर भावना 9. निर्जरा भावना 10. लोक भावना 11. बोधिदुर्लभ भावना 12. धर्मस्वाख्यात तत्त्व भावना |

1. अनित्य भावना – संसार की नश्वरता को देखते हुए मनुष्य यह चिन्तन – मनन करे कि इन्द्रियों के जितने भी विषय हैं, धन – दौलत, यौवन, भोग और शरीर – पर्याय आदि, ये सब जल के बुलबुले या इन्द्रधनुष की भाँति अस्थिर हैं| इस प्रकार का चिंतन अनित्य भावना है| अनित्य भावना के चिंतन से सांसारिक पदार्थों के प्रति मोह और आसक्ति कम होती है, जिससे मनुष्य इष्ट वियोग और अनिष्ट संयोग में कभी दु:खी नहीं होती है| उदाहरण – भरत चक्रवर्ती|

2. अशरण भावना – इस संसार में कोई भी पदार्थ शरणदाता नहीं है| इस संसार में रोग, बुढ़ापा तथा मृत्यु आदि से कोई भी बचा नहीं सकता है, यहाँ तक कि उसके परिजन – स्वजन, उसका धन – वैभव, सम्पत्ती तथा उसका शरीर आदि भी शरणभूत नहीं हैं, ऐसा नित्य चिंतन अशरण भावना है| ऐसे चिंतन से मनुष्य में सांसारिक पदार्थों के प्रति मोह कम होता है और आत्म तत्व के प्रति रूचि और श्रध्दान बनता और बढ़ता है| इस संसार में यदि कोई शरणदाता है तो वह है – धर्म| उदाहरण – अनाथी मुनि|

3. संसार भावना – संसार दु:ख का सागर है| यहाँ रहकर कोई भी संसारी मनुष्य जो संसार की मृग तृष्णा के वशीभूत है, मोह से संतृप्त है, सुख प्राप्त नहीं कर सकता| संसार तो सुख – दुख, हर्ष – विषाद तथा द्वेष व द्वन्द्व का स्थल है, ऐसा चिंतन संसार भावन है| उदाहरण – भगवती मल्ली|

4. एकत्व भावना – संसार में प्रत्येक मनुष्य अकेला ही जन्म लेता है और अकेला ही मरण को प्राप्त होता है| उसके साथ कोई भी स्वजन – परिजन नहीं होता है| जीव अपने कर्मों का स्वयं कर्त्ता और भोक्ता होता है, दूसरा कोई नहीं, ऐसा चिंतन एकत्व भावना है| इससे आत्म – प्रतीति जगती है और स्थिरता आती है| उदाहरण – नमि राजर्षि के|

5. अन्यत्व भावना – यह जो शरीर मैंने धारण कर रखा है, वह मेरा नहीं है, फिर घर – परिवार, कुटुम्ब, जाति धन – वैभव आदि मेरे कैसे हो सकते हैं? मैं अन्य हूँ और ये सब मुझसे भिन्न हैं, अलग हैं| शरीरादि तो जड़ हैं, नाशवान हैं, अस्थिर हैं, क्षणभंगुर हैं| मैं तो आत्मा हूँ, चेतना हूँ, शाश्वत हूँ| शरीरदि में मोह – आसक्ति रखना हितकारी नहीं है| जिस प्रकार तिल से तिल और खली, धान से छिलका, फलों से गुठली और रस अलग हो जाता है उसी प्रकार यह शरीर और आत्मा भिन्न – भिन्न है| ऐसी दृढ़ प्रतीति अन्यत्व भावना के चिंतन से ही सम्भव है|

6. अशुचि भावना – शरीर रक्त – माँस – मज्जा – मल – मूत्र आदि घृणित पदार्थों से बना हुआ पिण्ड है| शरीर जिसमें आत्मा प्रतिष्ठित है उसे सजाने – सँवारने की अपेक्षा साधने की आवश्यकता है संयमादि से शरीर को साधा जाता है| सधे हुए शरीर में रहकर आत्मा के अनन्त ज्ञान – दर्शनादि गुणों को प्रकट किया जा सकता है| उदाहरण सनत्कुमार के अशुचि भावना का| जब चक्रवर्ती सनत्कुमार को अपने रूप का दम्भ हो गया तो परीक्षा करने आये ब्राह्माण रूपी देवों ने कहा कि है राजन्! तुम्हारा यह शरीर रोगों का वास है| असंख्यात कीटाणु इसमें भरे पड़े हैं| इसलिए इस पर गर्व मत करो| देवों के कहने पर राजा ने पात्र में थूका| थूक में बिलबिलाते असंख्यात कीड़े दिखाई दिये| उसी पल उसे शरीर की अशुचि का भान हुआ और शरीर से वैराग्य हुआ|

7. आस्रव भावना – जिससे कर्म आश्रव के द्वारों को समझा जाता है, वह आस्रव भावना है| कर्मों का आगमन कितने द्वारों से होता है और इनके आगमन के कौन – कौन से कारण हैं तथा उससे कैसा फल – परिणाम मिलता है आदि विष्यों पर चिंतन किया जाता है| कर्मों के वशीभूत प्रत्येक जीव अनादिकाल से संसार में परिभ्रमण कर रहा है| आस्रव द्वार या स्रोत जब तक खुले रहते हैं, तब तक मनुष्य अपने निजस्वरुप को भूलकर संसार में बार – बार जन्म – मरण धारण कर दु:खों व कष्टों को सहता रहता है| उदाहरण – समुद्रपाल|

8. संवर भावना – संवर भावना में आस्रव द्वारों को बंद करने के सम्यक्त्व तथा व्रतादि साधनों – उपायों पर चिंतन – मनन किया जाता है| ऐसे चिंतवन से मनुष्य में धर्मपूर्वक तप, समिति; गुप्ति तथा परीषह जप से सम्यक्त्व सद् आचारण की ओर प्रवृत्ति बढ़ती है, जिससे कर्मों का द्वार बन्द होता है| अर्थात् कर्मों का संवर होने लगता है| उदाहरण – श्री हरकेशी मुनि|

इन चारों भावनाओं के नित्य और निरन्तर चिंतन से मनुष्य नाशवान पदार्थों के प्रति अपनी आसक्ति कम करता हुआ ज्ञेय और उपादेय पदार्थों की ओर सदा अभिमुख रहता है अर्थात् उसका सारा ध्यान आत्मा की विशुध्दता और विकसित अवस्था की ओर रहता है|

9. निर्जरा भावना – कर्म निर्जरा के स्वरूप, कारणों तथा उपायों आदि का नित्य चिंतन करना निर्जरा भावना है| निर्जरा का अर्थ है धीरे – धीरे कर्मों का क्षय होते जाना| कर्मों के क्षय के लिए बारह प्रकार के तपों का आराधन करना| इन तपों के स्वरूपादि का, परीषहों व उपसर्गों, कषायों आदि का भी चिंतन – मनन होता है, जिससे मनुष्य परीषहों व उपसगों को समभाव के साथ ज्ञानपूर्वक सहता है तथा कषायों पर विजय भी प्राप्त करता है जिससे वह पूर्वबध्द कर्मों की निर्जरा कर सके |उदाहरण – मुनि अर्जुन | निर्जरा दो प्रकार से होती है- एक  सकाम निर्जरा और दूसरी अकाम निर्जरा| सकाम निर्जरा – समकित के सद्भाव में आत्म लक्ष्य से किये गये तप से होती निर्जरा | अकाम निर्जरा – समकित के अभाव में आत्म लक्ष्य बिना किये गये तप से होती निर्जरा|

10. लोक भावना – जिस भावना में लोक के यथार्थ स्वरूप आदि पर चिंतन किया जाता है, वह लोक भावना है| लोक अनादि, अनन्त व षड्द्रव्यों का समूह है| इन द्रव्यों के स्वरूप तथा परस्पर सम्बन्धों के बारे में चिंतन – मनन करना, ऐसे चिंतन से लोक के शाश्वत और अशाशवत होने तथा यह लोक किस पर टिका है, आदि से सम्बन्धित मिथ्या धारणाएँ नष्ट होती हैं| उदाहरण – ऋषि शिवराज|

11. बोधिदुर्लभ भावना – जिस भावना में चौरासी लाख योनियों और चार गतियों में भ्रमणशील मनुष्यों को उत्तम कुल प्राप्त होना और उसमें भी विशुध्द बोधि या दृष्टि मिलना अत्यन्त दुर्लभ है और जब ऐसी स्थिति प्राप्त हुई है तो क्यों न मोक्षमार्ग की ओर प्रवृत्त हुआ जाए, जब यह चिंतन होता है, वह भावना बोधिदुर्लभ भावना है| संसार में मनुष्य पर्याय ही एक ऐसी पर्याय है जिसमें धर्म को धारण करते हुए सम्यक् संयम तपादि का आचरण कर कर्मबन्ध से मुक्त हुआ जा सकता है| उदाहरण – तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के अट्ठानवे पुत्रों का|

12. धर्मस्वाख्यात तत्त्व भावना – जिस भावना में धर्म और तत्त्व का चिंतन किया जाता है, वह भावना धर्मस्वाख्यात तत्त्व भावना है| इसमें मनुष्य यह चिंतन करता है कि यह मेरा अहोभाग्य है कि मुझे यह धर्म मिला है, जो प्राणी मात्र का कल्याण करने में समर्थ व सक्षम तथा सर्वगुण सम्पन्न है क्योंकि यह धर्म तीर्थंकरों की देशना से अनुस्यूत है| अत:मनुष्य जन्म तभी सार्थक है जब इस धर्म का सतत चिन्तन व मनन कर तदनुरूप आचरण में उतारा जाए| उदाहरण – धर्मरूचि|

इस प्रकार इन बारह भावनओं के चिंतवन करने से कोई भी मनुष्य अपने जन्म और मरण दोनों को सार्थ कर सकता है| इन भावनाओं के चिंतवन से यथार्थ सत्यानुभूति तथा शाश्वत सुखानुभूति भी होती है|

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