‘क्षमापना’ के वृक्ष पर ही सुख शांति के फूल खिलते हैं

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Ashok Nagori Jain

क्षमा करें और क्षमा मांग लें, यह उत्तम व्यवहार है,
क्षमा वीर का भूषण है, यह आत्म सिद्धि का द्वार है।

‘क्षमापना’ आत्म शुद्धि का मूल मंत्र है। क्षमापना धर्म साधना का प्राण है। ‘क्षमापना’ वह अमृत है जो दुखी जीवन में समाये हुए सारे जहर को मिटाकर सच्चे सुख का संचार करता है। ‘क्षमापना’ के वृक्ष पर ही सुख शांति के फूल खिलते हैं। ‘क्षमा’ समस्त सुखों का वह रत्नाकर है जिसमे सारे सद्गुण रुपी रत्न समाये हुए हैं। जिसे संसार के सारे दुःखों से मुक्त होना है, उसे सर्वप्रथम अपने अंतर्मन की शुद्धि करना आवश्यक है। क्षमापना सिर्फ शिष्टाचार नहीं है अपितु विश्व मैत्री का मूल मंत्र है।

प्रकृति का सिद्धांत है कि हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। संसार में जीव जो भी दुःख भोग रहे हैं, उसका कारण जीव के स्वयं के कृत कर्म हैं।हमने अपने स्वार्थ, मोह एवं अज्ञानता के वश अन्य जीवों को मन वचन और काया से जाने अनजाने में अनेक प्रकार के कष्ट पहुंचाए। कुछ तो हमें ज्ञात भी हो जाते हैं लेकिन बहुत कुछ तो हमें ज्ञात भी नहीं हो पाते हैं। हमने अपने सुख की लालसा में यह नहीं समझा कि जैसे हमें दुःख अप्रिय है वैसे ही सभी को भी दुःख अप्रिय ही है। हमारे मन वचन और काया की क्रिया से दूसरे जीवों को जो भी कष्ट पहुँच रहा है उसकी प्रतिक्रिया के रूप में हमें भी अवश्य कष्ट की ही प्राप्ति होगी। यदि दुःख पाने से बचना है तो हमें दूसरों को दुःख देने से बचना पड़ेगा। अतीत काल में हमने अनंत अन्य जीवों को जो भी कष्ट पहुँचाया है उसका वे बदला अवश्य लेंगे। उन सभी का बदला चुकाने के लिए अनंत काल तक भी जन्म मरण कर दुःख भोगना पड़ सकता है। उन सभी जीवों से सच्चे अन्तः करण से क्षमायाचना करके हम उन पापों को हल्का कर सकते हैं और उस पाप का पश्चाताप करके हम अपनी आत्मा को शुद्ध बना सकते हैं। क्षमायाचना का भाव अपनी गलतियों का अहसास कराता है। सभी जीवों को अपने समान समझने का भाव जागृत करता है। दूसरे जीवों को होने वाली पीड़ा को अपनी पीड़ा के समान समझने की सोच प्रदान करता है।

क्षमायाचना से आत्मा में रहा हुआ स्वार्थ, द्वेष एवं अहंकार का भाव नष्ट हो जाता है और निर्मलता, निष्कपटता, निश्छलता, सरलता एवं विनम्रता का विकास होता है। जिस हृदय में क्षमा का वास होता है उसी हृदय में विनय गुण विकसित होता है और विनय ही धर्म का मूल है। जो व्यक्ति अपनी भूल को भूल नहीं मानकर उसे सही समझता है वह सम्यक्त्व अर्थात सही सोच से भी पतित हो जाता है। वह अपने स्वार्थ एवं अहंकार के वश उस भूल को छिपाता चला जाता है और आगे भी निरंतर भूल पर भूल, गलती पर गलती करता चला जाता है जिससे वह निरंतर पतन के गर्त में गिरता चला जाता है। क्षमा भाव आत्मा को पतन से बचता है और आत्मोत्कर्ष की ओर बढ़ाता है।

क्षमा मांगना साधारण कार्य नहीं है। सामान्य व्यक्ति तो अपनी भूल को छिपाता है। लेकिन जो अपनी भूल को स्वीकार कर क्षमायाचना करता है वह वास्तव में सभी से विशेष ही होता है। विशाल हृदय वाला व्यक्ति ही क्षमा याचना कर सकता है। शास्त्रों में कहा गया है ‘ क्षमा वीरस्य भूषणं ‘। क्षमा को धारण करने वाला वीर होता है। क्षमायाचना भी तभी सार्थक होती है जब व्यक्ति क्षमा करे भी। जो दूसरों को क्षमा कर सकता है वही क्षमा प्राप्त करने का भी अधिकारी होता है। जिसने कभी दूसरों को क्षमा करना नहीं सीखा उसे दूसरों से क्षमा प्राप्त करने का कोई अधिकार नहीं है।

क्षमा आत्म शुद्धि के साथ ही सुखी जीवन का मूल मंत्र है। हमें अपने गुरुजनों, परिवारजनों, सगे-सम्बन्धियों, इष्ट मित्रों, आत्मीयजनों, आजीविका में सहायकजनों आदि से तो क्षमायाचना करनी ही है, साथ ही जिनसे भी अपना वैर-विरोध है, द्वेष भाव है, जिसने स्वार्थ या अज्ञानतावश हमारा अहित कर दिया हो  उससे भी सच्चे मन से क्षमापना कर अपनी आत्मा को निर्मल बनाना है।

क्षमा से ही सारे संसार में सुख शान्ति की स्थापना की जा सकती है। आज क्षमा के अभाव के कारण ही सारा विश्व अशांत बना हुआ है, विश्व युद्ध के कगार पर खड़ा हुआ है। विश्व को विनाश से बचाने के लिए  व्यक्ति व्यक्ति को, जाति जाति को, राष्ट्र राष्ट्र को एक दूसरे के प्रति क्षमा का आदान प्रदान करना होगा। सोचिये यदि संसार में सभी लोग क्षमा का महत्व समझकर क्षमा भाव धारण करते हैं तो किसी भी प्रकार का वैर-विरोध-वैमनस्य-विवाद रह सकता है क्या ? नहीं ! क्षमा को अपनाने से सारा संसार सुखी संसार बन सकता है। कई बार ऐसा भी होता है कि व्यक्ति दूसरों से तो क्षमायाचना कर लेता है एवं दूसरों को क्षमा कर देता है लेकिन अपने सगे सम्बन्धियों, रिश्तेदारों से ही द्वेष भाव रख लेता है और न तो उनसे क्षमायाचना करता है और न ही उन्हें क्षमा करना चाहता है।  यह तो सबसे अधिक बुरा है।

हमारी संस्कृति ‘ वसुधैव कुटुम्बकम ‘ की है। यह सारा विश्व ही अपना परिवार है। सब अपने ही हैं, फिर अपनों से ही द्वेष कैसा ? अतः सबसे पहले हमारा कर्तव्य है कि जो हमारे अपने करीबी हैं, उनसे सर्वप्रथम क्षमायाचना एवं क्षमा दान का शुभारम्भ करें। आगमों में ‘ खन्ती, मुत्ति, अज्जवे, मद्दवे, लाघवे, सच्चे, संजमे, तवे, चियाए, बम्बचेरवासिए ‘ ये दस प्रकार के मुनि धर्म बताये गए हैं जिनमे क्षमा का स्थान सर्वप्रथम है। क्षमा के बिना हर साधना अधूरी है। अगर कोई साधक कठोर से कठोरतम साधना भी कर ले लेकिन अगर उसके हृदय में क्षमा भाव नहीं है तो उसे कभी संसार के जन्म मरण के दुष्चक्र से मुक्ति नहीं मिल सकती है। उसकी साधना संसार में भटकाने वाली ही बनती है। क्षमा भाव से ही आत्मा में सम भाव का विकास होता है। सम भाव से ही सम्यक्त्व, सम्यक्त्व से संवर, संवर से सकाम निर्झरा और सकाम निर्झरा से ही केवल्य ज्ञान एवं मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है।

क्षमा भाव में सदा जीत है, वैर-विरोध सब मिट सकता है,
सबको अपना समझेंगे तो, सुखी विश्व बन सकता है।।

अतः यदि अपनी आत्मा का कल्याण करना है और सारे विश्व में सुख शांति का संचार करना है तो क्षमा भाव को अपने जीवन में सर्वोपरि स्थान देना है। आईये हम सारे वैर विरोध भुलाकर एक दूसरे के साथ क्षमा का आदान प्रदान करें और अपने हृदय को पवित्र बनाते हुए आत्म उन्नति, आत्म शुद्धि, आत्म सिद्धि के पथ पर अग्रसर हों। 

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