प्रथम तीर्थंकर भगवान श्री ऋषभदेवजी के तेरह भव
इस अवसर्पिणी काल में युग के प्रथम तीर्थंकर भगवान श्री ऋषभदेवजी (श्री आदिनाथजी) के जीव ने धन्ना सार्थवाह के भव में सम्यक्त्व प्राप्त किया था। उस भव से लेकर मोक्ष हो जाने तक तेरह भव किये थे। वे भव ये हैं- 1. धन्ना सार्थवाह 2. युगलिया 3. देव (सौधर्म देवलोक में) 4. महाबल 5. ललितांगदेव (दूसरे देवलोक में) 6. वज्रजंघ 7. युगलिया 8. देव (सौधर्म देवलोक में) 9. जीवानन्द वैद्य 10. देव (अच्युत देवलोक में) 11. वज्रनाभ चक्रवर्ती 12. देव (सर्वार्थ सिद्ध विमान में) 13. प्रथम तीर्थेश श्री ऋषभदेवजी।
प्रथम भव : “श्री धन्नाजी सार्थवाह”
जम्बूद्वीप के पश्चिम महाविदेह में क्षितिप्रतिष्ठित नाम का नगर था। वहाँ प्रसन्नचन्द्र नाम का प्रतापी राजा राज्य करता था। वह अपनी महत् ऋद्धियों के कारण इन्द्र की तरह शोभायमान था। उस नगर में “धन्ना” नाम का श्रेष्ठी रहता था। जिस तरह अनेक नदियाँ समुद्र के आश्रित रहती हैं, उसी प्रकार उस श्रेष्ठी के घर अनेक निराश्रित आश्रय पा रहे थे। वह अपनी सम्पत्ति को परोपकार में ही खर्च करता था। वह सदाचारी और धर्मपरायण था।
एक समय उसने किराणा लेकर वसन्तपुर जाने का तय किया। उसने सारे नगर में घोषणा करवाई कि “धन्ना श्रेष्ठी व्यापारार्थ वसन्तपुर जाने वाला है। जिस किसी को वसन्तपुर चलना हो वह चले। जिसके पास चलने को सवारी नहीं होगी, वे उसे सवारी देंगे। जिसके पास अन्न-वस्त्र नहीं है, उसे वे अन्न-वस्त्र देंगे। जिसके पास व्यापार के लिये धन नहीं है उसे धन भी प्रदान करेंगे तथा रास्ते में चोरों, डाकुओं एवं व्याघ्र आदि हिंसक प्राणियों से उनका रक्षण करेंगे।”
इस प्रकार की घोषणा करवाने के बाद धन्ना श्रेष्ठी ने चार प्रकार की वस्तुएं गाड़ियों में भरी। घर की स्त्रियों ने उनका प्रस्थान मंगल किया। शुभ मुहूर्त में सेठ रथ पर आरूढ़ होकर नगर के बाहर चले। सेठ के प्रस्थान के समय जो भेरी बजी उसी को क्षितिप्रतिष्ठित निवासियों ने अपने बुलाने का आमंत्रण समझा। अपनी-अपनी साधन सामग्रियों के साथ तैयार होकर नगर के बाहर आये। धन्ना श्रेष्ठी नगर के बाहर उद्यान में आकर ठहरे।
उस समय श्री धर्मघोषजी नाम के तेजस्वी आचार्य अपनी शिष्य मण्डली के साथ नगर में पधारे हुए थे। वे भी वसन्तपुर जाना चाहते थे। किन्तु मार्ग की कठिनाइयों के कारण वे जा नहीं सकते थे। उन्होंने भी यह घोषणा सुनी। धन्ना सार्थवाह का मणिभद्र नामक प्रधान मुनीम था। श्री धर्मघोषजी आचार्य ने उनके पास अपने दो साधुओं को भेजा। अपने घर पर आए हुए मुनियों को देखकर मणिभद्र ने उन्हें प्रणाम किया और विनयपूर्वक आने का कारण पूछा। साधुओं ने कहा-“धन्ना सार्थवाह का वसन्तपुर गमन सुनकर आचार्य महाराज सा. ने हमें आपके पास भेजा है। यदि सार्थवाह को स्वीकार हो तो वे भी उनके साथ जाना चाहते है।”
मणिभद्र ने उत्तर दिया- “सार्थवाह का अहोभाग्य है अगर आचार्य महाराज सा. साथ में पधारें किन्तु जाने के समय आचार्य महाराज सा. स्वयं आकर सार्थवाह को कह दें।” यह कहकर नमस्कार पूर्वक उसने मुनियों को विदा किया। साधुओं ने जाकर सारी बात आचार्य म. सा. को कही। उसे स्वीकार करके आचार्य महाराज सा. अपने मुनि परिवार के साथ सार्थवाह को दर्शन देने के लिये उनके डेरे पर गये। अपने द्वार पर आये हुए आचार्य का सार्थवाह ने उचित सत्कार किया और उनसे विनयपूर्वक आने का कारण पूछा। आचार्य ने कहा-“हम भी तुम्हारे साथ वसन्तपुर जाना चाहते हैं।”
धन्ना सार्थवाह ने अपना सद्भाग्य मानते हुए कहा- “आचार्य प्रवर ! आज मैं धन्य हूँ। आप जैसे महापुरुष के साथ रहने से हमारा काफिला पवित्र हो जाएगा। हमारे जैसे अनेक व्यक्ति आपके पवित्रोपदेशामृत की वीतराग वाणी का पान कर सन्मार्ग की ओर आकृष्ट होंगे। आप अवश्य मेरे साध पधारे।” उसी समय सार्थवाह ने अपने रसोइये को बुला कर कहा-“जैसा आहार इन मुनिवरों को चाहिये उसे बिना संकोच के देना। इन्हें भोजन विषय में किसी प्रकार का कष्ट न हो इस बात का पूरा ध्यान रखना।” यह सुनकर आचार्य ने कहा-“हे सार्थपते ! इस प्रकार हमारे निमित्त तैयार किया हुआ आहार हम नहीं लेते किन्तु दूसरों के लिये बनाया गया निर्दोष आहार ही माधुकरी (भिक्षा) वृत्ति से ग्रहण करते हैं। कुआँ, वापी और तालाब का अग्नि आदि से असंस्कारित जल भी हम ग्रहण नहीं करते।”
उसी समय एक महानुभाव ने पके हुए सुगंधित आम्रफलों से भरा हुआ थाल सार्थपति को उपहार स्वरूप दिया। उसे देखकर प्रसन्न होते हुए सार्थपति ने आचार्य से कहा-“भगवन् ! इन फलों को ग्रहण करके मुझ पर अनुग्रह कीजिये।” आचार्य ने कहा-“श्रेष्ठिन् ! मुनि सचित्त फल, बीज, कन्द, मूल ग्रहण नहीं करते। जो पदार्थ निर्जीव है वे ही ग्राह्य हैं।” यह सुनकर सार्थवाह बोला-“आपके व्रत और आपके नियम अत्यन्त कठोर है। मोक्ष का शाश्वत सुख बिना कष्ट के नहीं मिलता। यद्यपि आपका हमारे से बहुत कम प्रयोजन है फिर भी मार्ग में किसी प्रकार का कष्ट हो तो अवश्य ही हमें आज्ञा दीजियेगा।” ऐसा कहकर सार्थवाह ने आचार्य को प्रणाम कर उन्हें विदा किया। आचार्य अपने स्थान पर चले आये।
दूसरे दिन शुभ समय में प्रातःकाल होते ही आचार्य सार्थवाह के काफिले के संग रवाना हुए। सार्थवाह अपने काफिले के साथ आगे बढ़ा। सबसे आगे धन्ना सार्थवाह चल रहा था। उसके पीछे उसका प्रधान मुनीम मणिभद्र व दोनों ओर उसके रक्षकों का दल था। उनके साथ आचार्य श्री धर्मघोषजी अपनी शिष्य मण्डली के संग चल रहे थे। उनके पीछे पीछे अन्य व्यापारी अपने-अपने वाहनों के साथ अपने लक्ष्य की ओर बढ़ रहे थे। धन्ना सार्थवाह अपने साथ के सब व्यक्तियों का पूरा ध्यान रखता था और उनकी हर कठिनाई को दूर करता था। इस प्रकार सार्थपति का विशाल काफिला गर्मी की ऋतु में भी सतत प्रयाण करता हुआ आगे बढ़ रहा था। तेजी से आगे बढ़ते हुए सार्थवाह के काफिले ने भयंकर जंगली जानवरों से युक्त अटवी में प्रवेश किया। वह अटवी वृक्षों से इतनी सघन थी की उसमें सूर्य का प्रकाश भी नहीं आता था। सघन व लम्बी अटवी को पार करते हुए गर्मी की ऋतु समाप्त हो गई। वर्षाकाल प्रारंभ हो गया। आकाश बादलों से छा गया। आँधी व तूफान के साथ बिजली चमकने लगी। नदी-नाले-पोखरादि भर गये। मार्ग कीचड़ व पानी से दुर्गम बन गया। वाहनों का आगे बढ़ना दुष्कर हो गया। स्थान-स्थान पर उभरते हुए नदी-नाले सार्थ के काफिले को आगे बढ़ने से रोक रहे थे। ऐसी स्थिति में काफिलें को वही रुकना पड़ा। सार्थवाह ने अपने साथियों से पूछकर वहीं सुरक्षित स्थल पर अपना पड़ाव डाल दिया। सामान की सुरक्षा के लिए वृक्षों पर मंच बनाये गये। रहने के लिए घास की झोपड़िया बनाई गई। मणिभद्र ने अपने लिए बनाई हुई एक निर्दोष झोपड़ी आचार्यश्रीजी म. सा. को रहने के लिए दी। आचार्य उस झोपड़ी में अपनी शिष्य मंडली के साथ रहने लगे और धर्म ध्यान में समय बिताने लगे।
वर्षा बहुत लम्बी चली। अतः सार्थवाह को अपनी कल्पना से भी अधिक रुकना पड़ा। लम्बे समय तक अटवी में रहने के कारण काफिले के समीप की खाद्य सामग्री खत्म गई। लोग कंद, मूल खाकर अपना जीवन व्यतीत करने लगे।
सार्थवाह जब आराम कर रहा था उस समय उसके मुनीम ने कहा-स्वामिन् ! खाद्य सामग्री के कम होने से सभी लोग कन्द-मूल और फल खाने लगे हैं और तापसों सा जीवन बिताने लगे हैं। भूख के कारण काफिले की स्थिति अत्यन्त दयनीय हो गई है। मणिभद्र की बात सुनकर धन्ना सार्थवाह चौंक गया। उसे अपने आपकी स्थिति पर एवं काफिले की दशा पर अत्यन्त दुःख
हुआ। वह सोचने लगा मेरे काफिले में सबसे अधिक दुःखी कौन है? यह सोचते-सोचते उसे आचार्य श्री धर्मघोषजी का स्मरण हो गया। वह अपने आपको कहने लगा-“इतने दिन तक मैंने उन महाव्रतधारियों का नाम तक नहीं लिया। सेवा करना तो दूर रहा।
कन्द, मूल, फल वगैरह वस्तुएँ उनके लिए अभक्ष्य हैं। वे निर्दोष आहार ग्रहण करते हैं, अतः उनकी खाद्याभाव में क्या स्थिति रही होगी? उसकी मुझे जांच करनी चाहिये।”
दूसरे दिन सार्थवाह शय्या से उठा। प्रातः कृत्य से निपटकर वह बहुत से लोगों के साथ आचार्य श्रीजी के समीप गया। वहाँ पहुंच कर मुनियों से घिरे हुए श्री धर्मघोष आचार्यजी के दर्शन किये और उनके पास में बैठकर आचार्यश्रीजी से कहने लगा-“भगवन् ! मैं पुण्यहीन हूँ पुण्यहीन के घर में कल्पवृक्ष नहीं उगता, न वहाँ कभी धन की वृष्टि होती है। आप संसार-समुद्र से पार होने के लिये जहाज के समान हैं। आप सच्चे धर्मोपदेशक व सद्गुरु हैं। आप जैसे सद्गुरु को प्राप्त करके भी मैंने कभी भी अमृत वचन नहीं सुने। प्रभो ! मेरे इस प्रमाद को क्षमा कीजिए।”
सार्थवाह के ये वचन सुनकर आचार्य कहने लगे-“सार्थपते ! आपको दुःखी न होना चाहिए। जंगल में क्रूर प्राणियों से हमारी रक्षा करके आपने सब कुछ कर लिया है। काफिले के लोगों से इस देश और कल्प के अनुसार आहार आदि मिल जाते हैं।” सार्थवाह ने कहा-“भगवन् ! यह आपकी महानता है कि मेरे अपराध की ओर ध्यान न देकर आप मेरी प्रशंसा करते हैं तथा
प्रत्येक परिस्थिति में संतुष्ट रहते हैं। किसी दिन मुझे भी दान का लाभ देने की कृपा कीजिये।”
आचार्य ने कहा-“कल्पानुसार देखा जायेगा।” इसके बाद सार्थवाह वन्दना करके चला गया। उस दिन के बाद सार्थवाह प्रतिदिन भोजन के समय मुनियों की प्रतीक्षा करने लगा। एक दिन गोचरी के लिये घूमते हुए दो मुनि उसके निवास पर पधारे। सार्थवाह को बड़ी खुशी हुई। वह सोचने लगा-आज मेरे धन्य भाग्य हैं, जो मेरे घर मुनियों का आगमन हुआ, किन्तु इन्हें क्या दिया
जाय? पास में ताजा घी पड़ा था। सार्थवाह ने उसे हाथ में लेकर मुनियों से प्रार्थना की। यदि यह ग्रहणीय हो तो आप इसे ग्रहण करें। ग्रहणीय है, यह कह कर मुनियों ने पात्र बढ़ा दिया। सार्थवाह बहुत प्रसन्न हुआ। अपने जन्म को कृतार्थ समझता हुआ घी देने-लगा। घी देते समय सेठ के परिणाम इतने उच्च हुए कि देवों को भी आश्चर्य होने लगा। सेठ के परिणामों की परीक्षा लेने के लिए देवताओं ने मुनि की दृष्टि बाँध दी। जिससे मुनि अपने पात्र को देख नहीं सकते थे। इस कारण सेठ का बहराया हुआ घी पात्र भर जाने से बाहर जाने लगा। फिर भी सेठ घी डालता ही रहा। परिणामों की उच्चता के कारण वह यही समझता रहा कि मेरा दिया हुआ घी तो पात्र में ही जा रहा है। सेठ के दृढ़ परिणामों को देखकर देवों ने अपनी माया समेट कर दान का महात्म्य बताने के लिए वसुधारा आदि पाँच द्रव्य प्रकट किये। धन्ना सार्थवाह ने भावपूर्वक दान देकर “बोधिबीज-सम्यक्त्व” को प्राप्त किया। भव्यत्व का परिपाक होने से वह अपार संसार समुद्र के किनारे पहुँच गया।
दूसरा भव : “युगलिया”
धन्ना सेठ सुख पूर्वक आयु पूर्ण करके दूसरे भव में वह उत्तर कुरुक्षेत्र में तीन पल्योपम की आयुवाला “युगलिया” हुआ।
तीसरा भव : “देव”
युगलिये का आयुष्य पूर्णकर धन्ना सेठ का जीव तीसरे भव में सौधर्म देवलोक में “देव” उत्पन्न हुआ।
चौथा भव : “श्री महाबलजी”
पश्चिम महाविदेह में गन्धिलावती नामका विजय है। इस विजय में गान्धार नामक देश है। उस देश की राजधानी का नाम ‘गन्धसमृद्धि’ है। इस नगरी में ‘शतबल’ नाम के विद्याधर राजा राज्य करते थे। उनकी रानी का नाम ‘चन्द्रकान्ता’ था। धन्ना सार्थवाह का जीव देव सम्बन्धी अपनी आयु पूरी करके महारानी चन्द्रकान्ता के गर्भ में उत्पन्न हुआ। गर्भकाल पूर्ण होने पर महारानी
ने एक शक्तिशाली पुत्र को जन्म दिया उसका नाम “महाबल” रखा गया। महाबल अच्छे कलाचार्यों के समागम तथा पूर्वभव के संस्कार के सुयोग से समस्त विद्याओं में निपुण हो गया। महाराज शतबल ने अपने पुत्र की योग्यता को प्रकट करने वाले विनय आदि सद्गुणों से प्रभावित होकर उसे युवराज बना दिया।
कुछ समय के बाद विषय भोगों से विरक्त होकर महाराजा शतबल ने दीक्षा लेने का विचार किया और राज्याभिषेकपूर्वक समस्त राज्य अपने पुत्र महाबल को सौंपकर वे बन्धन से छुटे हुए हाथी की तरह घर से निकल पड़े व आचार्य के समीप जाकर चारित्र अर्थात् दीक्षा ग्रहण कर ली। पिता के दीक्षित होने पर महाराजा महाबल ने राज्य की बागडोर सम्हाली। वे अत्यंत न्यायपूर्वक राज्य करने लगे। उनके जैसा न्यायी व प्रजावत्सल राजा को पाकर प्रजा अपने को धन्य मानने लगी।
महाराजा महाबल के चारों बुद्धि के निधान, साम, दाम, दण्ड, भेद नीति के ज्ञाता चार महामन्त्री थे। इनके नाम थे स्वयंबुद्ध, संभिन्नमति, शतमति व महामति। ये चारों महाराजा के बाल मित्र व राज्य के हितचिंतक थे। उनमें स्वयंबुद्ध मन्त्री सम्यग्दृष्टि व शेष तीन मन्त्री मिथ्यादृष्टि थे। यद्यपि उनमें इस तरह मतभेद था पर स्वामी का हित करने में चारों ही तत्पर थे।
एक समय महाराज महाबल अपनी राजसभा में बैठे हुए थे। चारों मन्त्री भी महाराजा के साथ अपने-अपने आसन पर आसीन थे। शहर के गण्यमान्य नागरिक भी सभा में उपस्थित थे। राजनर्तकी अपने मनमोहक नृत्य से महाराज व सभासदों को मन्त्रमुग्ध कर रही थी। महाराज बड़े मुग्ध होकर नर्तकी का नृत्य देख रहे थे। महाराज महाबल की इस आसक्ति को देख कर
महामन्त्री स्वयंबुद्ध सोचने लगा हमारे स्वामी संसार के कार्यों में इतने अधिक निमग्न हैं कि उन्हें परलोक सम्बन्धी विचार करने का समय भी नहीं मिलता। स्वामी के इन्द्रियों पर विजय पाने की अपेक्षा इन्द्रियाँ स्वयं उन पर विजय पा रही हैं। अगर यही स्थिति रही तो महाराज के सच्चे हितैषी होने के नाते महाराज को इस मोह के कीचड़ से निकालना चाहिए। यह विचार कर स्वयंबुद्ध मन्त्री नम्रभाव से बोला-“राजन् ! जो शब्दादि विषय हैं वही संसार के कारण हैं, जो संसार के मूल कारण है वे विषय है। इसलिए विषयाभिलाषी प्राणी प्रमादी बनकर शारीरिक और मानसिक बड़े-बड़े दुःखों का अनुभव कर सदा परितप्त रहता है। मेरी माता, मेरे पिता, मेरे कुटुम्बी स्वजन, मेरे परिचित, मेरे हाथी, घोड़े, मकान आदि साधन, मेरी धन-सम्पत्ति, मेरा खान-पान, वस्त्र इस प्रकार के अनेक प्रपंचों में फँसा हुआ यह प्राणी आमरण प्रमादी बनकर कर्म बन्धन करता है।” मानव की विषयेच्छा अगाध समुद्र की तरह है। जिस तरह अनेक नदियों का अथाह जल मिलने पर भी समुद्र सदा अटल रहता है, उसी प्रकार अनन्त भोग सामग्री के मिलने पर भी मानव सदा अतृप्त ही रहता है। विषयाभिलाषी मानव भवान्तर में महा दुःखी होता है। अतः हे स्वामी ! विषयों से अपनी रुचि हटाकर अपने मन को धर्म मार्ग की ओर लगाइये। कारण इस जीवन का कोई निश्चय नहीं है कभी भी मृत्यु आ सकती है। इस सत्य को न समझ कर जीवन को शाश्वत समझने वाले लोग कहा करते हैं कि धर्म की आराधना फिर कभी कर लेंगे, अभी क्या जल्दी है? ये लोग न पहले ही धर्म की आराधना कर पाते हैं न पीछे ही। यों कहते-कहते ही उनकी आयु पूरी हो जाती है और काल आकर खड़ा हो जाता है। तब अन्त समय में केवल पश्चात्ताप ही उनके हाथ रह जाता है। अतः आप इस मानव भव को सफल बनाने के लिए शाश्वत धर्म की आराधना कीजिए। स्वयंबुद्ध मन्त्री की असमय धर्म की बातें सुनकर महाराजा महाबल बोले-“मन्त्री-प्रवर ! तुमने धर्माचरण की जो बात कही है वह बिना अवसर के कही है। यह अवस्था धर्माचरण की नहीं है।”
मन्त्री -“राजन् ! धर्माचरण के लिये कोई समय का निर्धारण नहीं होता। मानव जीवन की असारता को देखते हुए प्रत्येक क्षण में धर्म का आचरण करना चाहिए।” मैंने जो आपको बिना अवसर के धर्माचरण की सलाह दी है उसका कारण भी सुनिये। मैं आज नन्दनवन में गया था। वहाँ मैंने दो चारण मुनियों को एक वृक्ष के नीचे ध्यान करते हुए देखा। मैं उनके पास गया
और दर्शन कर उनके पास बैठ गया। मुनियों ने अपना ध्यान समाप्त कर मुझे उपदेश दिया। उपदेश समाप्ति के बाद मैंने उनसे आपकी आयुष्य का प्रमाण पूछा। उन्होंने आपका आयुष्य एक मास का बाकी बताया। हे स्वामी ! यही कारण है कि मैं आपसे धर्माचरण करने की जल्दी कर रहा हूं।
स्वयंबुद्ध मन्त्री से अपनी एक मास की आयु जानकर महाबल बोला-मन्त्री ! सोये हुए मुझको जगाकर तुमने बहुत अच्छा किया। किन्तु इतने अल्प समय में किस तरह धर्म की साधना करूँ?
स्वयंबुद्ध बोला-‘महाराज घबराइये नहीं। एक दिन का धर्माचरण भी मुक्ति दे सकता है तो स्वर्गप्राप्ति तो कितनी दूर है।’ महाबल राजा ने पुत्र को राज्य का भार सौंप दिया। दीन-अनाथों को दान दिया। स्वजनों और परिजनों से क्षमा याचना की और स्थविर मुनि के पास आत्मालोचनापूर्वक सर्व सावद्य योगों का त्याग कर अनशन ग्रहण कर लिया। यह अनशन 22 दिन तक
चला। अन्त में नमस्कार मन्त्र का ध्यान करते हुए देह का त्याग किया।
पाँचवाँ भव : “देव”
मानव भव का आयुष्य पूर्ण करके महाबल का जीव दूसरे देव लोक में श्रीप्रभ नामक विमान का स्वामी “ललितांग नामक देव” बना। उसकी प्रधान देवी का नाम स्वयंप्रभा था।
महाराजा महाबल की मृत्यु का समाचार जानकर स्वयंबुद्ध मंत्री को वैराग्य उत्पन्न हो गया। उसने सिद्धाचार्य के पास दीक्षा ग्रहण की। शुद्ध चारित्र का पालन कर वह भी ईशान कल्प में ईशानेन्द्र का दृढ़धर्मा नामक सामानिक देव हुआ। ललितांग अपनी मुख्यदेवी स्वयंप्रभा के साथ स्वर्गीय सुखों का उपयोग करने लगा। इस प्रकार स्वयंप्रभा के साथ रहते हुए ललितांग देव की आयु का बहुत भाग बीत गया। स्वयंप्रभा की आयु पूर्ण हो गई। वह वहाँ से चवकर अन्य गति में उत्पन्न हुई। स्वयंप्रभा की मृत्यु से ललितांगदेव को बड़ा आघात लगा। वह देवी के विरह में पागल की तरह इधर-उधर घूमने लगा। अपने पूर्व भव के स्वामी ललितांग को देवी के वियोग में पागल देखकर दृढ़धर्मा देव ललितांग के पास आया और अपने पूर्व जन्म का परिचय
देकर बोला-“स्वामी! आप महान् हैं फिर भी स्त्री के वियोग में आपकी यह स्थिति देखकर मुझे बड़ा अफसोस होता है। बुद्धिमान पुरुष स्त्रियों के पीछे पागल नहीं होते।”
ललितांग-“बन्धुवर! तुम ठीक कहते हो, पर स्वयंप्रभा मुझे प्राणों से भी अधिक प्रिय थी। जब तक वह न मिलेगी तब तक मुझे एक पल भी चैन नहीं मिलेगा। मैं अपने प्राण को छोड़ सकता हूँ पर स्वयंप्रभा का वियोग एक पल भी नहीं सह सकता।” ललितांगदेव की यह स्थिति देखकर दृढ़धर्मा देव को बड़ा दुःख हुआ। वह अवधि ज्ञान से स्वयंप्रभा की उत्पति के स्थल को
जानकर बोला-‘हे महासत्त ! आप चिन्ता न करें। स्वयंप्रभा का जीव इस समय कहां है और वह पुनः आपको कैसे प्राप्त हो सकती है, मैं उपाय बताता हूँ।’
धातकीखण्ड के विदेह क्षेत्र में नन्दी नाम का एक छोटा सा ग्राम है। वहाँ नागिल नामका एक अत्यन्त दरिद्र रहता है उसकी दरिद्रता में वृद्धि करने वाली नागश्री नाम की स्त्री है। उसने एक के बाद एक ऐसी छह कुरूप कन्याओं को जन्म दिया। पहले ही वह दारिद्रय के दुःख से पीड़ित था, इन कन्याओं के जन्म से उसका दुःख असीमित हो गया। इस बीच उसकी पत्नी ने पुनः गर्भ धारण किया। पत्नी को गर्भवती देखकर उसने सोचा-इस बार भी कन्या पैदा हुई तो मैं दरिद्र परिवार का त्यागकर परदेश चला जाऊँगा। पत्नी ने सातवीं बार भी कन्या को जन्म दिया। जब उसने कन्या जन्म की बात सुनी तो वह चुपचाप कुटुम्ब छोड़कर चला गया। पति के वियोग और दारिद्रय दुःख से पीड़ित नागिल स्त्री ने सातवीं कन्या का नामकरण नहीं दिया। इसलिये लोग उसे निर्नामिका कहने लगे। नागश्री ने उसका पालन पोषण भी नहीं किया। वह वनलता की तरह अपने आप बढ़ने लगी अत्यन्त अभागी और माता को उद्वेग करने वाली वे कन्याएँ दूसरों के घरों में काम करके अपना निर्वाह करने लगी। एक बार गाँव में उत्सव के दिन धनिक बालकों के हाथ में लड्डू देखकर निर्नामिका ने अपनी माँ से लड्डू की मांग की। माँ ने क्रोधित होकर कहा-‘दुष्टे ! लड्डू कहाँ से लाऊँ ? यहाँ तो सुखी-लूखी रोटी को भी पता नहीं है। यदि तुझे लड्डू ही खाने हैं तो तू अम्बरतिलक पर्वत पर जा। वहाँ से काष्ठ लाकर बेच दे। उससे जो पैसा आयेगा, उससे लड्ड लेकर खा लेना।’
हृदय में दाह पैदा करने वाली यह बात सुनकर रोती हुई निर्नामिका अम्बरतिलक पर्वत पर पहुँची। वहाँ युगन्धर नाम के केवलज्ञानी उपदेश दे रहे थे। निर्नामिका भी वहाँ पहुँची और उनका उपदेश सुनने लगी। मुनियों का उपदेश सुनकर उसने गृहस्थ के बारह व्रत ग्रहण किये। उसने अपनी आयु के थोड़े दिन जानकर अनशन ग्रहण लिया। वह इस समय अम्बरतिलकपर्वत पर अनशन कर रही है। तुम उसके पास जाओ।अपना दिव्य रूप दिखाकर अपनी देवी बनने के लिये कहो। दृढ़धर्मा देव के मुख से यह बात सुनकर ललितांग देव अम्बरतिलक पर्वत पर अनशन कर रही निर्नामिका के पास पहुँचा। अपना दिव्य वैभव दिखाकर बोला-निर्नामिके ! तुम मृत्यु आने के समय मेरा ध्यान करना ताकि तुम मर कर मेरी ही देवी बनो। ललितांगदेव की यह बात सुनकर पूर्व जन्म के स्नेह वश उसने वैसा ही किया और वह मर कर ललितांग देव की स्वयंप्रभा नाम की देवी बनी।
ललितांगदेव ने स्वयंप्रभा के साथ भोग विलास करते हुए अपनी आयु के शेष दिन बिता दिये। उसकी मृत्यु नजदीक आ गई जिससे उसके वक्षःस्थल पर पड़ी हुई पुष्पमाला भी म्लान हो गई। उसकी कान्ति मंद पड़ गई। मुख पर दीनता आ गई। अन्ततः उसकी देव आयु जलते हुए कपूर की तरह समाप्त हो गई। ललितांगदेव के स्वर्ग से च्युत हो जाने पर स्वयंप्रभादेवी की वही दशा हुई जो चकवे के विछोह में चकवी की होती है। वह रात-दिन पति के वियोग में चुपचाप बैठी रहती। अन्ततः उसने अपने पति का ध्यान करते हुए अपनी देव-आयु समाप्त की।
छठा भव : “श्री वज्रजंघजी”
ईशान देवलोक का आयुष्य समाप्त कर ललितांग देव का जीव महाविदेह क्षेत्र के पुष्कलावती विजय में स्थित लोहर्गल नगर के राजा स्वर्णजंघ की रानी लक्ष्मीदेवी की कुक्षि से पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ। उसका नाम “वज्रजंघ” रखा गया। स्वयंप्रभा देवी का जीव इसी पुष्कलावती विजय में स्थित पुण्डरीकिणी नगरी के राजा वज्रसेन की पुत्री रूप से उत्पन्न हुआ। इसका नाम श्रीमती रखा गया। श्रीमती युवा हुई। एक समय वह अपने महल की छत पर बैठी थी। उसी समय उस ओर से कुछ देव विमान निकले। उन्हें देख कर उसे जातिस्मरण ज्ञान पैदा हो गया। उसे अपने पूर्वभव के पति ललितांग देव का स्मरण हो आया। उसने मन में दृढ़ संकल्प कर लिया कि जब तक मुझे अपने पूर्व भव का पति न मिलेगा तब तक मैं किसी से न बोलूँगी। अतः उसने मौन धारण कर लिया।
श्रीमती की पण्डिता नाम की सखी थी। वह बहुत चतुर थी उसने इसका कारण जानकर श्रीमती की सहायता से उसने दूसरे देवलोक ईशानकल्प का तथा ललितांगदेव के विमान का एक चित्र बनाया किन्तु उसमें त्रुटियाँ रहने दी। उस चित्रपट को राजपथ पर टांग दिया। संयोगवश उस समय राजकुमार वज्रजंघ उधर से निकला। राजपथ पर टंगे हुए उस चित्रपट को देखकर उसे भी
जातिस्मरण ज्ञान हो गया। उसने चित्रपट में रही हुई कमी दूर कर दी। इस बात का पता श्रीमती तथा उसके पिता वज्रसेन को लगा।
इससे उसको बहुत प्रसन्नता हुई। वज्रसेन ने श्रीमती का विवाह वज्रजंघ के साथ कर दिया। बहुत काल तक सांसारिक भोग भोगने के बाद अब महाराज वज्रजंघ और महारानी श्रीमती दोनों को संसार से वैराग्य उत्पन्न हुआ। प्रातः पुत्र को राज्य देकर दोनों जैन भागवती दीक्षा अंगीकार कर लेंगे ऐसा विचार कर महाराजा और महारानी सुख पूर्वक सो गये।
उसी दिन राजकुमार ने किसी शस्त्र या विषप्रयोग द्वारा राजा को मारकर राज्य प्राप्त कर लेने का विचार किया। राज दम्पत्ती को महल के कक्ष में सोये हुए जानकर राजपुत्र ने विषमिश्रित धुआँ छोड़ दिया जिससे राजा और रानी दोनों एक साथ मर गये।
सातवाँ भव : “युगलिया”
परिणामों की सरलता के कारण सातवें भव में राजा वज्रजंघ और रानी श्रीमती के जीव उत्तरकुरु क्षेत्र में तीन पल्योपम की आयु वाले “युगलिये” हुए।
आठवाँ भव : “देव”
युगलिये का आयुष्य समाप्त कर दोनों पति पत्नी सौधर्म देवलोक में “देव” हुए।
नौवाँ भव : “श्री जीवानन्दजी”
जम्बूद्वीप के महाविदेह क्षेत्र में क्षितिप्रतिष्ठित नाम का रमणीय नगर था। उस नगर में सुविधि नामका एक वैद्य रहता था। देवलोक से चवकर वज्रजंघ का जीव सुविधि वैद्य के यहाँ पुत्र रूप से जन्मा। उसका नाम ‘जीवानन्द’ रखा गया। उसी समय के लगभग उस नगर में अन्य चार बालकों ने भी जन्म लिया। उनमें ईशानचन्द्र राजा की कनकवती रानी की कुक्षि से ‘महीधर’ नामक
पुत्र हुआ। दूसरा सुनासीर नामक मंत्री की लक्ष्मी नामक पत्नी से ‘सुबुद्धि’ नामक पुत्र हुआ। तीसरा सागरदत्त सार्थवाह की अभयमती स्त्री से ‘पूर्णभद्र’ नामक बालक हुआ। चौथा धन श्रेष्ठी की शीलवती स्त्री के उदर से ‘गुणाकर’ नामक पुत्र हुआ। सौधर्म देवलोक से च्युत होकर श्रीमती के जीव ने इसी क्षितिप्रतिष्ठित नगर के प्रसिद्ध श्रेष्ठी ईश्वरदत्त के घर जन्म लिया। उसका नाम
‘केशव’ रखा गया।
ये छहों बालक सुख पूर्वक बढ़ते हुए बाल्यकाल से ही परस्पर मित्र रूप में खेलकूद के साथ रहने लगे। इनकी मैत्री प्रगाढ़ थी। उनमें जीवानंद आयुर्वेद विद्या में निष्णात हुआ। वह अपने पिता की तरह अल्प समय में ही नगर का सुप्रसिद्ध वैद्य बन गया। नगरजन उसका बड़ा मान करते थे। अन्य पाँच मित्र भी युवा हुए और अपने-अपने पिता के कार्य में हाथ बटाने लगे। इन छहों
मित्रों की वय के साथ मित्रता भी बढ़ रही थी। एक दिन वे पाँचों मित्र जीवानंद वैद्य के यहाँ बैठे थे। उसी समय एक तपस्वी मुनि उधर से निकले। उनके चेहरे से ऐसा प्रतीत होता था कि उनके शरीर में कोई व्याधि है। अपने कार्य में व्यस्त होने के कारण जीवानन्द वैद्य का ध्यान उधर न गया। महीधर राजकुमार ने उससे कहा-“मित्र ! तुम बड़े स्वार्थी मालूम पड़ते हो। जहाँ निस्वार्थ सेवा का अवसर होता है उधर तुम ध्यान ही नहीं देते।” जीवानन्द ने कहा-“मित्र ! आपका कथन यथार्थ है, किन्तु मुझे अब बताइये कि मेरे योग्य ऐसी कौनसी सेवा है।”
राजकुमार-“वैद्य ! इस तपस्वी मुनिराज के शरीर में कोई रोग प्रतीत होता है। इसे मिटाकर महान् धर्म-लाभ लीजिये।”
जीवानन्द चतुर वैद्य था। उसने मुनि के शरीर को देखकर जान लिया कि कुपथ्य सेवन से यह रोग हुआ है। जीवानन्द ने अपने मित्रों से कहा कि इसको मिटाने के लिये लक्षपाक तेल तो मेरे पास है किन्तु गोशीर्ष चन्दन और रत्नकंबल ये दो वस्तुएँ मेरे पास नहीं है। यदि ये दोनों वस्तुएँ आप ले आवें तो मुनि की चिकित्सा हो सकती है और इनका शरीर पूर्ण स्वस्थ बन सकता है। जीवानन्द का उत्तर सुनकर पाँचों मित्र बाजार गये। जिस व्यापारी के पास दोनों चीजें मिलती थी उसके पास जाकर इनकी कीमत पूछी।
व्यापारी ने कहा- “इन दोनों वस्तुओं का मूल्य दो लाख सुवर्ण-मुद्रा है। मूल्य चुकाकर आप इन्हें ले जा सकते हैं, किन्तु प्रथम यह बताइयेगा कि आप लोग इतनी कीमत की वस्तु ले जाकर क्या करेंगे?” उन्होंने कहा-“एक मुनि की चिकित्सा के लिये इनकी आवश्यकता है।” युवकों की इस अपूर्व धर्म भावना और दयालुता को देखकर रत्नकंबल का व्यापारी बड़ा प्रसन्न होकर बोला-“युवकों ! तुम्हारी उठती जवानी में इस तरह की धार्मिक भावना को देखकर मैं बहुत प्रभावित हुआ हूँ। मैं गोशीर्ष चन्दन और रत्नकंबल बिना मूल्य के ही देता हूँ। आप इन चीजों से अवश्य ही मुनि की चिकित्सा करें।” वे दोनों चीजें लेकर रवाना हुए। मुनिराज के विषय में चिन्तन करते-करते वृद्ध व्यापारी को वैराग्य उत्पन्न हो गया। उसने घर-बार त्याग कर दीक्षा ले ली और कर्मों का अन्तकर मोक्ष प्राप्त किया।
पाँचों मित्र वस्तुएँ लेकर जीवानन्द वैद्य के पास आये। वैद्य ने औषधोपचार कर मुनि के शरीर में से कीटाणुओं को निकाला। गोशीर्ष चन्दन का लेप कर उन्हें पूर्ण निरोग बना दिया।
कुछ काल के बाद छहों मित्रों को वैराग्य उत्पन्न हो गया। उन्होंने एक साथ प्रवज्या ग्रहण की। अनेक प्रकार की तपश्चर्या करते हुए वे संयम की साधना करने लगे। अन्तिम समय में अनशन कर समाधिपूर्वक देह का त्याग किया और मर कर वे अच्युत देवलोक में इन्द्र के सामानिक देव बना।
दसवाँ भव : ‘देव’
श्रेष्ठी धन्ना का जीव दसवें भव में अच्युत देवलोक में इन्द्र के सामानिक देव बना।
ग्यारहवाँ भव : “वज्रनाभ चक्रवर्ती”
जम्बूद्वीप के पूर्व स्थित पुष्कलावती विजय में लवण समुद्र के पास पुण्डरीकिणी नाम की नगरी थी। वहाँ वज्रसेन राजा राज्य करते थे। उनकी रानी का नाम धारिणी था। अच्युत देवलोक से जीवानन्द वैद्य का जीव चवकर महारानी धारिणी की कुक्षि में उत्पन्न हुआ। गर्भ के प्रभाव से महारानी ने चौदह महास्वप्न देखे। स्वप्न देखकर महारानी जागृत हुई। उसने पति के पास जाकर
स्वप्नों का फल पूछा। उत्तर में महाराज वज्रसेन ने कहा – “प्रिये ! तुम चक्रवर्ती पुत्र को जन्म दोगी।” महारानी यह सुनकर बड़ी प्रसन्न हुई। वह गर्भ का विधिवत् पालन करने लगी।
गर्भकाल के पूर्ण होने पर महारानी ने पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम वज्रनाभ रक्खा गया। जीवानन्द के शेष चार मित्र देवलोक का आयुष्य पूर्ण कर रानी धारिणी की कुक्षि से उत्पन्न हुए। वे वज्रनाभ के छोटे भाई हुए। उनके क्रमशः नाम ये थे-बाहु, सुबाहु, पीठ और महापीठ। इनके सिवाय केशव का जीव सुयश के नाम से दूसरे राजा का पुत्र हुआ। यह सुयशा बाल्यकाल से
ही वज्रनाभ के यहाँ रहने लगा। ये छहों राजपुत्र साथ ही में रहते थे। पूर्व जन्म के स्नेहवश इन में अगाध प्रेम और मित्रता थी। इन छहों ने कलाचार्य के पास रहकर शिक्षा प्राप्त की और राजनीति में निपुण बने। महाराज वज्रसेन तीर्थंकर थे इसलिये लोकान्तिक देवों ने उनसे तीर्थ प्रवर्ताने की प्रार्थना की। समय आने पर उन्होंने वर्षीदान देकर प्रवज्या ग्रहण की और केवलज्ञान प्राप्त कर तीर्थ प्रवर्तन किया। पिता के दीक्षित होने पर राज्य को वज्रनाभ ने सम्भाला। इसकी आयुधशाला में चक्ररत्न की उत्पत्ति हुई। चक्ररत्न की सहायता से वज्रनाभ ने छहों खंड पर विजय प्राप्त कर ‘चक्रवर्ती’ पद प्राप्त किया। वह चौदह रत्न और नौ निधि का स्वामी बना। वज्रनाभ के चक्रवर्ती बनने के बाद अन्य चार राजकुमार मांडलिक राजा बने। सुयश चक्रवर्ती का सारथी बना।
कुछ समय के बाद चक्रवर्ती वज्रनाभ को तीर्थंकर वज्रसेन का उपदेश सुनकर वैराग्य उत्पन्न हो गया। उन्होंने अपने पुत्र को राज्य सौंपकर भगवान वज्रसेन से दीक्षा ले ली। साथ में बाहु, सुबाहु, पीठ, महापीठ व सुयश ने भी प्रवज्या ग्रहण की। ये छहों दीक्षा ग्रहण कर कठोर तप करने लगे। कठोर तप से वज्रनाभ मुनि को अनेक लब्धियों की प्राप्ति हुई। उन्हें कई चमत्कारपूर्ण
लब्धियाँ प्राप्त होने पर भी वे उनका प्रयोग नहीं करते थे। वे निरन्तर संयमी गुणों की उत्तरोत्तर वृद्धि में ही लगे रहते थे। मुनि श्री वज्रनाभजी ने अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, स्थविर, बहुश्रुत, तपस्वी व प्रवचन का गुणानुवाद करके एवं इन पर प्रगाढ़ भक्ति-भाव रखकर अपने परिणामों में विशिष्ट उज्ज्वलता प्राप्त की। आप स्वयं निरन्तर ज्ञानोपार्जन में व जिज्ञासु जनों को ज्ञानदान
में संलग्न रहते, विशुद्ध श्रद्धा का पालन करते, गुणवृद्धों के प्रति विनययुक्त व्यवहार करते, प्रातः सायं उभयकाल विधिपूर्वक षडावश्यक क्रियाओं का अनुष्ठान करते, विशुद्ध ब्रह्मचर्य का पालन करते, परिषह एवं उपसर्ग आने पर भी धर्म में अटल रहते, ग्रहण की हुई प्रतिज्ञा में लेश मात्र भी दोष न लगने देते एवं निदानरहित तपश्चरण करते, गुरु, ग्लान, तपस्वी और नवदीक्षित मुनि की ग्लानि रहित सेवा करने में संकोच नहीं करते। शम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्तिक्य की दिनोदिन वृद्धि की, प्रवचन की विनय भक्ति की और जिनशासन की महिमा का विस्तार किया। ये सब स्थान तीर्थंकर गोत्र को उपार्जन करने के साधन हैं। इन स्थानों की उत्कृष्ट आराधना कर श्री वज्रनाभ मुनिजी ने ‘तीर्थंकर नाम गोत्र’ का उपार्जन किया।
बाहुमुनि को वृद्ध, रोगी और तपस्वी साधुओं की सेवा में अनुपम आनन्द का अनुभव होता था। आहार, पानी, औषधी और हितकारी निर्दोष पथ्य पदार्थ लाकर मुनियों को देते थे। निःस्वार्थ भाव से सेवा करने से उनको भी महान प्रकृति का बंध हुआ। उन्होंने ‘चक्रवर्ती’ ऋद्धि-सिद्धि के स्वामी होने योग्य पुण्यकर्म का बन्धन किया। सुबाहुमुनि भी अत्यन्त सेवाभावी थे। वे वृद्ध, ग्लान, तपस्वी, रोगी एवं बाल साधुओं के लिए विश्राम-स्थल थे। अपने शरीर की परवाह किये बिना वे निरन्तर साधु सेवा में निमग्न रहते थे। उन्होंने वृद्ध तपस्वी रोगी आदि असमर्थ मुनियों की सेवा में अपने शरीर को अर्पण कर दिया था। इस विशुद्ध व निःस्पृह सेवावृत्ति के फल स्वरूप उन्होंने उच्चतर पुण्य प्रवृत्ति का बन्ध किया। चक्रवर्ती अतिशय बलवान होते हैं पर सुबाहुमुनि ने चक्रवर्ती से भी अधिक बलवंत होने योग्य पुण्यमय प्रकृति का उपार्जन किया। श्री पीठ और श्री महापीठ मुनि भी निरन्तर ज्ञान – ध्यान – स्वाध्याय में तल्लीन रहते थे। किन्तु गुरु के मुख से श्री बाहु-श्री सुबाहु मुनि की प्रशंसा सुनकर ईर्षा करते थे। इन मुनियों की प्रशंसा सुनकर उनके मन में मलिन-मात्सर्य भाव उत्पन्न होता था। उन्होंने प्रकट में गुरु पर विश्वास और अन्तरङ्ग में अविश्वास रक्खा। इस प्रकार वे कपट का भी पोषण करते रहें। इस तरह कपट करने से पीठ और महापीठ को स्त्री वेद का बन्ध हुआ। स्त्री वेद का बन्ध करने के कारण पीठमुनि का जीव ब्राह्मी और महापीठ का जीव सुन्दरी के रूप में जन्म लेगा।
बाहुमुनि का जीव भरत चक्रवर्ती के रूप में एवं सुबाहुमुनि बाहुबलि के साथ में जन्म ग्रहण करेंगे। सारथी सुयशमुनि का जीव भगवान श्री ऋषभदेव को एक वर्ष, एक माह तथा दस दिन की तपस्या का ईक्षुरस का दान देने वाले श्रेयांस के रूप में जन्म ग्रहण करेगा। इन छहों मुनिराजों ने निरतिचारपूर्वक चौदह लाख वर्ष तक सम्यक् रूप से चारित्र का पालन किया। श्री वज्रनाभजी मुनि की कुल 94 लाख पूर्व की आयु थी। जिनमें उन्होंने तीस लाख पूर्व कुमारावस्था में, सोलह लाख पूर्व मांडलिक अवस्था में, 24 लाख पूर्व चक्रवर्ती पद एवं 24 लाख पूर्व मुनि अवस्था में व्यतीत किये। अपनी अन्तिम अवस्था में छहों मुनिराजों ने पादोपगमन अनशन ग्रहण कर समाधिपूर्वक आयु पूर्ण कर मुनिराज 33 सागरोपम की उत्कृष्ट आयु वाले सर्वार्थसिद्ध विमान में देव बने।
बारहवाँ भव : “देव”
श्री जीवानन्द वैद्य का जीव बारहवें भव में तैंतीस सागरोपम की उत्कृष्ट आयु वाले सर्वार्थसिद्ध विमान में ‘देव’ बने।
कालचक्र
काल की उपमा चक्र से दी जाती है। जैसे गाड़ी का चक्र घूमा करता है। वैसे ही काल भी सदा-सर्वदा घूमता रहता है। वह कभी भी एकसा नहीं रहता। काल का स्वभाव ही परिवर्तनशील है। उत्कर्ष और अपकर्ष ये दोनों सापेक्ष हैं। जहाँ उन्नति है यशस्वी कुलकर की पत्नी ने “अभिचन्द्र” नामक बालक और “प्रतिरूपा” नामक बालिका को जन्म दिया। पिता की मृत्यु के बाद ‘अभिचन्द्र’ चौथा कुलकर बना। इसने भी “हकार” और “मकार” नीति का प्रचलन किया। अभिचन्द्र की पत्नी प्रतिरूपा ने भी एक युगल को जन्म दिया “प्रसेनजित” व “चक्षुकांता” इनका नाम रखा। पिता की मृत्यु के बाद ‘प्रसेनजित’ पांचवां कुलकर बना। इसने ‘हकार’, ‘मकार’ और ‘धिक्कार’ नीतियों से युगलियों पर अनुशासन किया। आयु के कुछ मास पहले प्रसेनजीत की पत्नी चक्षुःकांता ने एक युगल सन्तान को जन्म दिया। उनका नाम ‘मरूदेव’ और ‘श्रीकांता’ रक्खा। माता-पिता की मृत्यु के बाद ‘मरुदेव’ कुलकर बना। इसने अपने पिता की तरह तीनों नीतियों का प्रचलन किया। मृत्यु के पूर्व उन्होंने एक युगल सन्तान को जन्म दिया। उनका नाम ‘नाभि’ व ‘मरुदेवी’ रक्खा। नाभि सवा पांचसौ धनुष ऊंचे थे। इनकी सुवर्ण जैसी कांति थी। मरुदेवी का वर्ण प्रियंगुलता की तरह श्याम था। माता-पिता की मृत्यु के बाद ‘नाभि’ कुलकर बने। मरुदेवी नाभि कुलकर की पत्नी बनी। पिता की तरह इन्होंने ‘हकार’, ‘मकार’ और ‘धिक्कार’ नीतियों से युगलियों पर अनुशासन किया।
तेरहवाँ भव :प्रथम तीर्थंकर भगवान श्री ऋषभदेवजी का जन्म
गत चौबीसी के चौबीसवें ‘तीर्थंकर श्री संप्रतिनाथजी’ के निर्वाण के बाद 18 कोटाकोटी सागरोपम के बीतने पर इस अवसर्पिणी काल के तीसरे आरे के 84 लक्ष पूर्व और नवासी पक्ष अर्थात् 3 वर्ष साढ़े 8 महीने बाकी रहे थे। तब आषाढ़ महीने की कृष्ण चतुर्दशी के दिन उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में चन्द्र का योग होते ही वज्रनाभ का जीव 33 सागरोपम आयु भोगकर सर्वार्थसिद्ध विमान से च्युत होकर जिस तरह मान सरोवर से गंगातट में हंस उतरता है, उसी तरह ‘नाभि’ कुलकर की स्त्री ‘मरुदेवी’ के गर्भ में अवतीर्ण हुआ। भगवान के गर्भ में आते ही तीनों लोक प्रकाश से आलोकित हो उठे और लोग सुख और शान्ति का अनुभव करने लगे। उसी रात्रि में महादेवी ‘मरुदेवी’ ने ‘चौदह महास्वप्न’ देखे। यथा-‘वृषभ’, ‘हाथी’, ‘सिंह’, ‘लक्ष्मी’, ‘पुष्पमाला’, ‘चन्द्रमंडल’, ‘सूर्यमंडल’, ‘महाध्वज’, ‘कलश’, ‘पद्मसरोवर’, ‘क्षीरसमुद्र’, ‘देवविमान’, ‘रत्नराशि’ और ‘निर्धूम अग्नि’।
इन स्वप्नों को देखकर मरुदेवी महामाता तत्काल जाग उठी। अपने देखे हुए स्वप्नों का चिन्तन कर हर्षित होती हुई रानी मरुदेवी अपने पति महाराजा नाभि के पास गई और उन्हें अपने देखे हुए महास्वप्न सुनाये। स्वप्नों को सुनकर महाराजा नाभि को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने कहा-“हे भद्रे ! इन महास्वप्नों के प्रभाव से तुम महान् भाग्यशाली कुलकर को जन्म दोगी।”
पति के मुख से स्वप्न का फल सुनकर मरुदेवी अत्यन्त प्रसन्न हुई। भगवान के च्यवन और मरुदेवी के स्वप्न दर्शन के फल स्वरूप इन्द्रों के आसन चलायमान हुए। इन्द्रों ने अवधिज्ञान से भगवान का मरुदेवी के गर्भ में उत्पन्न होना जान लिया। वे मरुदेवी के पास आकर कहने लगे- “हे स्वामिनी ! आपने जो चौदह महास्वप्न देखे हैं वे इस बात को सूचित करते हैं कि आपका पुत्र चौदह भुवन का स्वामी होगा और सारे संसार में धर्मचक्र का प्रवर्तन करेगा।” इस तरह स्वप्नार्थ कहकर और मरुदेवी माता को प्रणाम करके, सब इन्द्र अपने-अपने स्थान चले गये। इन्द्रों के मुख से स्वप्न का फल सुनकर महामाता महारानी मरुदेवी बड़ी खुश हुई और यत्नपूर्वक गर्भ का पालन करने लगी।
इस तरह नौ मास और साढ़े आठ दिन बीतने पर चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी की अर्द्ध रात्रि में उत्तराषाढ़ा नक्षत्र का चन्द्र के साथ योग होने पर महारानी मरुदेवी ने त्रिलोकपूज्य पुत्र को जन्म दिया। साथ में एक कन्या का भी जन्म हुआ। पुत्र का जन्म होते ही आकाश निर्मल हो गया। दिशाएँ स्वच्छ और दिव्य प्रकाश से आलोकित हो उठी। शीतल मन्द-मन्द सुगन्धित वायु बहने लगी। बादल सुगन्धित जल बरसाने लगे। उस समय क्षण मात्र के लिए नरकवासियों को भी ऐसा अपूर्व सुख व आनन्द का अनुभव हुआ जैसा पहले कभी नहीं हुआ था।
भगवान के जन्म से ‘अधोलोकवासिनी 8 दिशाकुमारियों’ के आसन चलायमान हुए। वे तत्काल अपने विशाल परिवार के साथ भगवान के जन्म स्थान पर आई। बाल तीर्थंकर तथा उसकी माता को तीन बार प्रदक्षिणा करके वन्दना की। अपना परिचय देती हुई बोली- “हे जगज्जननी ! हे विश्वोत्तम लोक-दीपक महापुरुष को जन्म देने वाली महामाता ! हम अधोलोकवासिनी 8
दिशाकुमारियाँ प्रभु का जन्मोत्सव करने के लिए यहाँ आई हैं। आप हमें देख कर भयभीत न होवें।” इसके बाद उन अधोलोकवासिनी दिशाकुमारिकाओं ने संवर्तक वायु चलाकर आसपास 1 योजन भूमि साफ की और एक विशाल सूतिकागृह का निर्माण किया।
इसके बाद ‘मेरु पर्वत पर रहने वाली 8 दिशाकुमारिकाएँ’ आई। उन्होंने सुगंधित जल वर्षाकर उस जगह की धूल शान्त की। मेरु पर्वतपर रहने वाली “ऊर्ध्वलोकवासिनी आठ दिशाकुमारियाँ” भी आई। उन्होंने 5 वर्ण के पुष्पों की वृष्टि की। इसी प्रकार रुचक पर्वत की “पूर्व दिशा में रहने वाली आठ दिशाकुमारिकाएँ” आई और अपने हाथ में दर्पण लेकर भगवान
की माता के पास गीत गाती हुई खड़ी हुई।
“दक्षिण दिशा की 8 दिशा कुमारियाँ” हाथ में कलश लेकर खड़ी हुई। पश्चिम दिशा की “रुचक पर्वतवासिनी 8 दिशाकुमारियाँ” हाथ में पंखा लेकर खड़ी रही।
उत्तर “रुचकस्थ 8 दिशाकुमारियाँ” हाथ में चँवर लिये खड़ी रहीं। रुचक पर्वत की विदिशा में रहने वाली 4 दिशाकुमारियों ने हाथ में दीपक लिया।
तदनन्तर रुचक पर्वत के मध्य में रहने वाली चार दिशाकुमारियों ने आकर नाभिनाल का छेदन कर उसे भूमि में गाड़ा। उन्होंने उस गड्ढे को रत्न से भर दिया।
तब उन दिशाकुमारियों ने जन्मगृह के पूर्व उत्तर दक्षिण में तीन कदलीगृह बनाये। उनमें देव विमान जैसे चौक व रत्नमय सिंहासन की रचना की। फिर उन देवियों में से एक देवी ने तीर्थंकर को अपने हाथ में लिया। दूसरी देवी तीर्थंकर की माता का हाथ पकड़ कर उन्हें कदलीगृह में ले आई। वहाँ माता व पुत्र को सिंहासन पर बिठाया। माता को लक्षपाक तेल से मालिस कर उबटन लगाया। सुगन्धित जल से स्नान कराया, अंग पौंछा व उन्हें दिव्य वस्त्र पहनाये। फिर बाल तीर्थंकर के साथ माता को उत्तर दिशा के मण्डप में ले आई। वहाँ देव विधि-विधान पूर्वक सभी मंगल कार्य तीर्थंकर जन्म नियमानुसार सुसम्पन्न किये। इसके बाद आप पर्वत की जैसी आयु वाले होओ प्रभु के कान में ऐसा कहकर पत्थर के गोलों को आपस में रगड़कर टिक-टिक शब्द किया। इसके बाद प्रभु व उनकी माता को सूतिकागृह में लाकर सुलाया। पास खड़ी रहकर गीत गाने लगी। उस समय सब इन्द्रों के आसन कम्पित हुए और उन्होंने अवधिज्ञान का उपयोग किया। अवधिज्ञान में तीर्थंकर का जन्म जानकर उन्होंने उस दिशा की ओर सात आठ कदम आगे बढ़कर तीर्थंकर देव को नमस्कार किया और भगवान की ‘णमोत्थु णं
अरिहंताण’ … इस पाठ से स्तुति की।
इसके बाद घण्टा की महान आवाज से व सेनापतियों द्वारा की गई घोषणा से देवता एकत्रित हो गये। भगवान का जन्म उत्सव करने हेतु उत्सुक हो अपने-अपने इन्द्र के साथ चलने को तैयार हो गये। उन्होंने तत्काल आभियोगिक देवताओं से अपने-अपने असंभाव्य और अप्रतिम विमान तैयार करवाये और एकत्रित हुए देवताओं व अपने-अपने परिवार संग अपने-अपने दिव्य यान-
विमान में बैठकर भगवान के जन्मोत्सव के लिये रवाना हुए। उन इन्द्रों में वैमानिकों के दस, भवनपतियों के बीस, व्यंतरों के बत्तीस व ज्योतिषियों के दो इस प्रकार चौसठ इन्द्र मिलकर जन्मोत्सव मनाने के लिये मेरु पर्वत पर एकत्रित हुए। इन इन्द्रों ने भगवान का जन्माभिषेक किया। उसके बाद शक्रेन्द्र ने अपने पाँच रूप बनाकर एक रूप में भगवान को अपनी गोद में लिया, दूसरे रूप में छत्र, चमर और वज्र लेकर आकाश-मार्ग से चलकर भगवान के जन्मस्थान पर आया और भगवान के पूर्व स्थापित बिम्ब को हटाकर भगवान को माता के पास सुलाया और माता की अवस्थापिनी निद्रा दूर की। शक्रेन्द्र ने भगवान के सिरहाने वस्त्र युगल और कुण्डल रक्खे तथा भगवान की दृष्टि में आवे वैसा रत्नमय गेंद लटकाया।
इसके बाद कुबेर को आज्ञा देकर बत्तीस करोड़ सुवर्ण, रत्न, चान्दी एवं बत्तीस नन्दासन और भद्रासन तथा अन्य अनेक दिव्य सामग्री से भगवान का घर भरवा दिया। इसके बाद आज्ञाकारी देवों से शक्रेन्द्र ने यह घोषणा करवाई कि -“यदि किसी भी देव ने भगवान का या भगवान की माता का अनिष्ट चिन्तन किया तो उसे सौधर्मेंद्र कठोर दण्ड देंगे, उसके सिर के टुकड़े-टुकड़े कर देंगे।” इस प्रकार की घोषणा के बाद इन्द्र ने भगवान के अंगूठे में अमृत भर दिया। तीर्थंकर माता का स्तनपान नहीं करते, अतः वे अमृतमय अंगूठे को चूसकर ही अपनी क्षुधा शान्त करते हैं। इसके बाद धात्री कर्म करने के लिए इन्द्र ने बालक की सेवा में पांच देवियों को नियुक्त किया। इसके बाद सभी ने नन्दीश्वर द्वीप पर जाकर अठाई महोत्सव मनाया और वे अपने-अपने स्थान पर चले गये। प्रातः मरुदेवी जागृत हुई। उसने प्रभु का जन्म व देवागमन की बात नाभिराजा से कही। सारी घटना सुनकर नाभिराजा बड़े आश्चर्यचकित हुए। उन्होंने बालक के जन्म पर बड़ी खुशियाँ मनाई। भगवान का जन्मोत्सव किया। बालक के जाँघ पर वृषभ का चिह्न व मरुदेवी ने पहले वृषभ का स्वप्न देखा था अतः माता-पिता ने शुभ दिवस में प्रभु का नाम “ऋषभ” रक्खा।
प्रभु के संग जिस कन्या का जन्म हुआ उसका नाम ‘सुमंगला’ रक्खा गया। दोनों बालक द्वितीय के चन्द्र की तरह बढ़ने लगे। भगवान के जन्म के एक वर्ष बाद सौधर्मेन्द्र भगवान की वंश स्थापना करने के लिये आये। इन्द्र ने भगवान के हाथ में ईक्षु का टुकड़ा दिया। भगवान ने उसे सहर्ष स्वीकार किया। उसी दिन से भगवान के वंश का नाम “ईक्ष्वाकु” पड़ा। भगवान के पूर्वज ईक्षुरस का पान करते थे अतः उनका काश्यप गौत्र हुआ।
युगादिदेव का शरीर 1. स्वेद-पसीना, रोग-मल से रहित सुगन्धमयी पूर्ण सुन्दर आकार वाला और सोने के कमल जैसा शोभायमान था। 2. उनके शरीर में मांस और खून गाय के दूध की धारा जैसा उज्जवल व दुर्गन्ध रहित था। 3. उनके आहार-निहार की विधि चर्मचक्षु के अगोचर थी और 4. उनके श्वास की खुशबू खिले हुए कमल के सुगन्ध समान थी।
ये चारों अतिशय प्रभु को जन्म से प्राप्त हुए थे। उनका संस्थान वज्रऋषभनाराच था और संहनन समचतुरस्त्र। उनकी बाल-क्रीड़ा देवताओं को भी आकर्षित करती थी। उनकी मधुर भाषा व वाक्चातुर्य सब को आनन्द देने वाली थी। भगवान का लालन-पालन पांच धाइयों के संरक्षण में होने लगा। क्रमशः भगवान ने बाल्यकाल को पार कर युवावस्था में प्रवेश किया।
जब भगवान की उम्र एक वर्ष से कुछ कम थी तब की बात है कि एक युगल अपनी युगल सन्तान को ताड़वृक्ष के नीचे रखकर क्रीड़ा करने की इच्छा से कदली-गृह में गया। हवा के झोंके से एक पका ताड़ का फल बालक के सिर पर गिरा। सिर पर चोट लगते ही बालक की मृत्यु हो गई। अब बालिका माता-पिता के पास अकेली रह गई। थोड़े दिनों के बाद बालिका के माता-पिता का भी देहांत हो गया। बालिका अपने साथी एवं माँ-बाप के अभाव में अकेली पड़ गई। वह अब अकेली ही वनदेवी की तरह घूमने लगी। देवी की तरह सुन्दर रूपवाली उस बालिका को युगल पुरुषों ने आश्चर्य से देखा और फिर वे उसे नाभि कुलकर के पास ले गये। नाभि कुलकर ने उन लोगों के अनुरोध से बालिका को यह कह कर रख लिया कि भविष्य में यह ऋषभ की पत्नी होगी। इस कन्या का नाम “सुनन्दा” रक्खा गया।
कालान्तर में बीस लाख पूर्व कुमार अवस्था में रहने के बाद सौधर्मेंद्र ने आकर भगवान का विधिपूर्वक ‘सुनन्दा’ और ‘सुमंगला’ के साथ विवाह करवा दिया। यहीं से विवाह प्रथा प्रारंभ हुई। ऋषभदेव अपनी दोनों पत्नियों के साथ सांसारिक सुखों का अनुभव करते हुए रहने लगे। अपनी पत्नियों के साथ भोगविलास करते हुए भगवान के कुछ कम छः लाख वर्ष व्यतीत हुए।
उस समय बाहु और पीठ के जीव सर्वार्थसिद्ध विमान से च्युत होकर सुमंगला की कोख में युग्म रूप से उत्पन्न हुए और सुबाहु तथा महापीठ के जीव भी उसी सर्वार्थसिद्ध विमान से च्यवकर सुनन्दा की कोख से उत्पन्न हुए। सुमंगला ने गर्भ के महात्म्य को सूचित करने वाले चौदह महास्वप्न देखे। देवी ने उन स्वप्नों का सारा हाल प्रभु से कहा, तब प्रभु ने कहा-तुम्हारे चक्रवर्ती पुत्र होगा। समय आने पर पूरब दिशा जिस तरह चमकते हुए सूरज को जन्म देती है उसी तरह सुमंगला ने भी अपनी कान्ति से चहु दिशाओं को प्रकाशमान करने वाले भरत और ब्राह्मी नाम के दो युग्म बच्चों को जन्म दिया। और सुमंगला ने इनके अतिरिक्त 49 युगल पुत्रों को जन्म दिया। सुनन्दा ने भी सुन्दर आकृति वाले बाहुबलि और सुन्दरी नामक युग्म सन्तान को जन्म दिया। इस प्रकार भगवान ऋषभदेव के एक सौ पुत्र और दो पुत्रियाँ हुई।
समय की विषमता के कारण अब कल्पवृक्ष फल रहित होने लग गया। लोग भूखों मरने लगे। हाहाकार मच गया। इस समय ऋषभदेव की आयु बीस लाख पूर्व की हो चुकी थी। इन्द्रादि देवों ने आकर ऋषभदेव का राज्याभिषेक किया। राज-सिंहासन पर बैठते ही ऋषभदेव ने भूख से पीड़ित लोगों का दुःख दूर करने का निश्चय किया। उन्होंने लोगों को विद्या और कला सिखलाकर
परावलम्बी से स्वावलम्बी बनाया। लोकनीति का प्रादुर्भाव कर अकर्मभूमि को कर्मभूमि में बदल दिया। भगवान ने अपने बड़े पुत्र भरत को निम्न बहत्तर कलाएँ सिखलाई- 1. लेख, 2. गणित, 3. रूप, 4. नाट्य, 5. गीत, 6. वाद्य, 7. स्वर जानने की कला, 8. ढोल इत्यादि बजाने की कला, 9. ताल देना, 10. द्यूत, 11. वार्तालाप की कला, 12. नगर के रक्षा की कला,
13.पासा खेलने की कला, 14. पानी और मिट्टी मिलाकर कुछ बनाने की कला, 15. अन्न उत्पादन की कला, 16. पानी उत्पन्न करने की और शुद्ध करने की कला, 17. वस्त्र बनाने की कला, 18. शय्या निर्माण करने की कला, 19. संस्कृत में कविता बनाने की कला, 20. पहेली रचने की कला, 21. छंद विशेष बनाने की कला, 22. प्राकृत गाथा रचने की कला, 23. श्लोक बनाने की कला, 24. सुगन्धित पदार्थ बनाने की कला, 25. मधुरा-दिक छह रस बनाने की कला, 26. अलंकार बनाने की कला, 27. स्त्री को शिक्षा देने की कला, 28. स्त्रीलक्षण, 29. पुरुष- लक्षण, 30. अश्वलक्षण, 31. हस्तिलक्षण, 32. गौ लक्षण, 33. कुक्कट लक्षण, 34. मेंढे के लक्षण, 35. चक्रलक्षण, 36. छत्र-लक्षण, 37. दण्डलक्षण, 38. तलवार लक्षण, 39. मणि लक्षण, 40. काकिणी (चक्रवर्ती का रत्न विशेष) का लक्षण जानना, 41. चर्म लक्षण, 42. चन्द्र लक्षण, 43. सूर्य की गति आदि जानना, 44. राहु की गति आदि जानना, 45. ग्रहों की गति जानना, 46. सौभाग्य का ज्ञान, 47. दुर्भाग्य का ज्ञान, 48. रोहिणी प्रज्ञप्ति विद्या सम्बन्धी ज्ञान, 49 मंत्र-साधना ज्ञान, 50. गुप्त वस्तु का ज्ञान, 51. हर वस्तु की हकीकत जानना, 52. सेना को युद्ध में उतारने की कला, 53. व्यूह रचने की कला, 54. प्रतिव्यूह रचने की कला, 55. सेना के पड़ाव का प्रमाण जानना, 56. नगर निर्माण, 57. वस्तु का प्रमाण जानना, 58. सेना के पडाव आदि का ज्ञान, 59. हर वस्तु के स्थापन कराने का ज्ञान, 60. नगर बसाने का ज्ञान, 61. थोड़े को बहुत करने की कला, 62. तलवार की मूठ बनाने का ज्ञान, 63. अश्वशिक्षा, 64. हस्तिशिक्षा, 65. धनुर्वेद, 66. हिरण्यपाक, सुवर्णपाक, मणिपाक, धातुपाक बनाने की कला, 67. बाहुयुद्ध दण्डयुद्ध मुष्टियुद्ध दृष्टियुद्ध युद्धनियुद्ध युद्धतियुद्ध, 68. सूत व नली बनाना, गेंद खेलने व वस्तु का स्वभाव जानने की कला, 69. चमड़ा बनाने की कला, 70. पत्र व वृक्षांग छेदन की कला, 71. संजीवन निर्जीवन, 72. पक्षियों के शब्द आदि से शुभाशुभ शकुन जानने की कला।
भरत ने अपने भाइयों को एवं प्रजाजनों को 72 कलाएँ सिखलाई। बाहुबली को प्रभु ने हाथी, घोड़े और स्त्री, पुरुषों के अनेक प्रकार के भेदवाले लक्षण बतलाए। ब्राह्मी को दाहिने हाथ से 18 प्रकार की लिपियाँ सिखलाई, वे 18 प्रकार की लिपियाँ ये हैं- 1. ब्राह्मी 2. यवनानी 3. दोसापुरिया 4. खरौष्ठी 5. पुक्खरसरिया 6. भोगवतिका 7. प्रहारातिगा 8. अंतक्खरिया 9. अक्षरपृष्ठिक 10. बैनयिकी 11. निहणविका 12. अंकलिपि 13. गणितलिपि 14. गंधर्वलिपि 15. आदर्शलिपि 16. माहेश्वरी 17. दामिललिपि 18. बोलिंदलिपि।
सुन्दरी को बायें हाथ से गणित सिखाया साथ ही प्रभु ने स्त्रियों की 64 कला का भी ज्ञान दिया। स्त्रियों की 64 कलाएँ ये हैं- 1. नृत्य, 2. औचित्य, 3. चित्र, 4. वादित्र, 5. मंत्र, 6. तंत्र, 7. ज्ञान, 8. विज्ञान, 9. दम्भ, 10. जलस्तंभ, 11. गीतमान, 12. तालमान, 13. मेघवृष्टि, 14. फलावृष्टि, 15. आरामरोपण, 16. आकारगोपण, 17. धर्मविचार, 18. शकुनविचार, 19.
क्रियाकल्प, 20. संस्कृतजल्प, 21. प्रसादनीति, 22. धर्मरीति, 23. वर्णिकावृद्धि, 24. स्वर्णसिद्धि 25. सुरभितैलकरण, 26. लीलासंचरण, 27. हयगजपरीक्षण, 28. पुरुष-स्त्री लक्षण, 29. हेमरत्नभेद, 30. अष्टादश लिपि परिच्छेद, 31. तत्कालबुद्धि, वास्तुसिद्धि, 33. कामविक्रिया, 34. वैद्यकक्रिया, 35. कुम्भभ्रम, 36. सारिश्रम, 37. अंजनयोग, 38. चूर्णयोग, 39.
हस्तलाघव, 40. वचनपाटव, 41. भोज्यविधि, 42. वाणिज्यविधि, 43. मुखमण्डन, 44. शालिखण्डन, 45. कथाकथन, पुष्पग्रन्थन, 47. वक्रोक्ति, 48. काव्यशक्ति, 49. स्फारविधिवेश, 50. सर्वभाषाविशेष, 51.अभिधानज्ञान, 52. भूषणपरिधान, 53. भृत्योपचार, 54. गृहाचार, 55. व्याकरण, 56. परनिराकरण, 57. रन्धन, 58. केशबन्धन, 59. वीणावादन, 60. वितण्डवाद, 61. अंकविचार, 62. लोकव्यवहार, 63. अंत्याक्षरिका, 64. प्रश्नपहेलिका।
इसके अतिरिक्त भगवान ने लोगों को असि, मसि एवं कृषि का व्यवसाय सिखाकर उन्हें आत्म-निर्भर बनाया। इस तरह प्रजा को मार्गदर्शन देते हुए भगवान के तिरासी लाख पूर्व व्यतीत हुए।
एक समय वसन्त-क्रीड़ा के अवसर पर भगवान को संसार से वैराग्य उत्पन्न हो गया। उन्होंने संसार के बन्धनों का परित्याग कर स्व-पर का कल्याण करने का निश्चय किया। जिस समय भगवान के मन में वैराग्य की तरंगे उठ रही थी उस समय पांचवें देवलोक में रहने वाले सारस्वत, आदित्य, वह्नि, वरुण, गर्दताय, तुषित अव्याबाध, आग्नेय और रिष्ट नाम के लोकान्तिक देव
भगवान के पास आये और उन्हें नमन कर निवेदन करने लगे-“हे प्रभो ! आपने जिस तरह इस लोक की सारी व्यवस्था चलाई, उसी तरह अब धर्मतीर्थ को चलाइये।” इस तरह भगवान को निवेदन कर, पुनः नमस्कार कर देवगण अपने-अपने स्थान चले गये। देवताओं की प्रार्थना पर भगवान ने प्रवज्या ग्रहण करने का दृढ़ निश्चय कर लिया।
घर आकर भगवान ने अपने समस्त पुत्रों को बुलाया और उनके सामने उन्होंने अपनी दीक्षा की भावना व्यक्त की। बहुत कुछ समझाने के बाद भरतादि पुत्रों ने पिता के द्वारा दिये गये राज्य को स्वीकार किया। भगवान ने भरत को विनीता नगरी का और निन्यानवे पुत्रों को अलग-अलग नगरों का राज्य दे दिया। इसके बाद प्रभु ने सांवत्सरिक दान (वर्षीदान) देना प्रारंभ कर दिया।
नित्य सूर्योदय से भोजनकाल तक प्रभु एक करोड़ आठ 1,08,00,000 लाख सुवर्ण मुद्राएँ दान करते थे। इस तरह एक साल में प्रभु ने तीन सौ अठ्यासी करोड़ अस्सी 3,88,80,00,000 लाख सुवर्ण मुद्राओं का दान दिया।
वार्षिक दान के अन्त में इन्द्रादि देव भगवान के पास आये और उनका दीक्षाभिषेक किया। तदन्तर भगवान सुन्दर वस्त्राभूषणों से अलंकृत हो ‘सुदर्शना’ नाम की पालकी (शिविका) पर आरूढ़ हुए। भगवान की पालकी को देव और मनुष्य वहन करने लगे। भगवान की पालकी के पीछे-पीछे उनका समस्त परिवार चलने लगा। इस प्रकार विशाल जनसमूह व देवताओं के साथ भगवान की पालकी ‘सिद्धार्थ नामक उद्यान’ में लाई गई। भगवान पालकी पर से नीचे उतरे। एकान्त में जाकर भगवान ने अपने समस्त वस्त्राभूषण उतार दिये। अपने हाथों से ही अपने कोमल केशों का लुंचन किया। चार बार मुष्ठि लुंचन के बाद भगवान पांचवी बार मुष्ठि से जब शेष बालों को उखाड़ने लगे तब इन्द्र ने भगवान से शिखा (शिखा = केशों के धारण करने से ही भगवान ऋषभदेव का दूसरा नाम केशरियानाथ पड़ा। सभी तीर्थंकरों में मात्र भगवान ऋषभदेव के मस्तक पर ही शिखा थी। भगवान ने इन्द्र की प्रार्थना को मान लिया।
“चैत्र कृष्ण अष्टमी” के दिन उत्तराषाढ़ा नक्षत्र के योग में दिन के पिछले प्रहर में भगवान ने सिद्धों को नमन कर महाव्रतों का उच्चारण करते हुए “स्वयमेव दीक्षा” ग्रहण कर ली। दीक्षा लेते ही भगवान को “मनःपर्यय ज्ञान” उत्पन्न हो गया। भगवान के साथ कच्छ, महाकच्छ आदि चार हजार पुरुषों ने दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा लेकर भगवान वन की ओर पधारने लगे। तब मरुदेवी
माता उन्हें वापिस महल चलने के लिये कहने लगी। जब भगवान वापिस न मुड़े, तब वह बड़ी चिन्ता में पड़ गई। अन्त में इन्द्रदेव ने महामाता मरुदेवी को समझा बुझाकर घर भेजा और भगवान वन की ओर विहार कर गये। इस अवसर्पिणी काल में भगवान सर्वप्रथम मुनि थे। इस अवसर्पिणी काल में इससे पहले किसी ने भी संयम नहीं लिया था।
इस कारण जनता मुनियों के आचार-विचार, दान आदि की विधि से बिल्कुल अनभिज्ञ थी। जब भगवान भिक्षा के लिये जाते तब लोग हर्षित होकर वस्त्राभूषण, हाथी, घोड़े, रथ, पालकी, स्वर्णादि देने के लिए आमंत्रित करते किन्तु शुद्ध और ऐषणिक आहार-पानी कहीं से भी नहीं मिलता। भूख और प्यास से व्याकुल होकर भगवान के साथ दीक्षा लेने वाले चार हजार मुनि तो अपनी इच्छानुसार प्रवृत्ति करने लग गये। वे कंद मूल फल खाकर अपना जीवन निर्वाह करने लगे। कच्छ व महाकच्छ जिनने भगवान ऋषभ के साथ ही में दीक्षा ग्रहण की थी वे भी जंगल में फल, फूल, कन्दादि खाकर जीवन निर्वाह करने लगे। उनके नमि व विनमि नाम के दो पुत्र थे। वे प्रभु के दीक्षा लेने से पहले ही उनकी आज्ञा से दूर देश को गये थे।
वहाँ से लौटते हुए उन्होंने अपने पिता को वन में देखा। उनको देखकर वे विचारने लगे-“ऋषभनाथ जैसे नाथ होने पर भी हमारे पिता अनाथ की तरह इस दशा में क्यों प्राप्त हुए। कहाँ वह राजा का वैभव और कहाँ यह वनचारी पशुओंसा जीवन !” वे पिता के पास आये और उन्हें प्रणाम कर सब हाल पूछा। तब कच्छ और महाकच्छ ने कहा-“भगवान ऋषभदेव ने राजपाट को त्यागकर भरत आदि को राज्य देकर संयम व्रत ग्रहण किया है। हमने भी प्रभु के साथ व्रत ग्रहण किया था। पर भूख, प्यास, शीत, उष्ण आदि परिषहों को सह नहीं सकने के कारण चारित्र से च्युत होकर वनवासी बन गये हैं। कंद मूल खाकर जीवन निर्वाह करते हैं।” पिता के मुख से यह सब बातें सुनकर उन्होंने कहा-“हम प्रभु के पास जाकर राज्य का हिस्सा मांगेंगे।” यह कह कर नमि और विनमि प्रभु के पास आये। भगवान निसंग हैं इस बात को वे नहीं जानते थे, अतः वे कायोत्सर्ग में स्थित प्रभु को प्रणाम करके प्रार्थना करते हुए कहने लगे-“भगवन् ! हमें भी भरतादि की तरह राज्य का कुछ हिस्सा दीजिए।” भगवान त्यागी थे, अतः वे कुछ भी जवाब नहीं देते थे। नमि व विनमि भगवान की अविरत रूप से सेवा करते। वे तीनों समय भगवान को हाथ जोड़कर राज्य के लिए याचना करते। भगवान की इस सेवा भक्ति को देखकर नागराज इन्द्र, नमि, विनमि पर प्रसन्न हुआ। उसने उन्हें विद्याधरों की विद्या दी जिसके प्रभाव से नमि, विनमि ने वैताढ्य गिरिमाला पर नये नगर बसाकर अपना स्वतन्त्र राज्य कायम किया।
एक वर्ष से अधिक समय बीत गया किन्तु भगवान को कही भी शुद्ध आहार नहीं मिला। विचरते-विचरते भगवान गजपुर नगर पधारे। वहाँ सोमप्रभ नाम का राजा राज्य करता था। वह भगवान ऋषभदेव का पड़पौत्र और तक्षशिला के राजा बाहुबलि का पुत्र था। सोमप्रभ के श्रेयांस नामका युवराज था। वह बहुत सुन्दर, बुद्धिमान और गुणी था। एक दिन रात को उसने स्वप्न देखा- काले पड़ते हुए सुमेरु पर्वत को मैंने अमृत के घड़ों से सींचा और वह अधिक चमकने लगा। उसी रात को सुबुद्धि नाम के सेठ ने भी स्वप्न देखा कि अपनी हजारों किरणों से रहित होते हुए सूर्य को पड़पौत्र श्रेयांसकुमार ने किरण सहित कर दिया और वह पहले से भी
अधिक प्रकाशित होने लगा। राजा सोमप्रभ ने भी स्वप्न देखा कि एक दिव्य पुरुष शत्रुसेना द्वारा हराया जा रहा है। उसने श्रेयांसकुमार की सहायता से विजय प्राप्त कर ली।
दूसरे दिन तीनों ने राज्य सभा में अपने-अपने स्वप्न का वृत्तान्त कहा। स्वप्न के वास्तविक फल को बिना जाने सभी अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार कुछ कहने लगे। इस बात में सभी का एक मत था कि श्रेयांसकुमार को कोई महान लाभ होगा। राजा, सेठ तथा सभी दरबारी अपने-अपने स्थान पर चले गये। श्रेयांसकुमार अपने सात मंजिले महल की खिड़की में आकर बैठ गया। जैसे ही उसने बाहर दृष्टि डाली भगवान श्री ऋषभदेवजी को पधारते हुए देखा। वे एक वर्ष एक माह तथा दस दिन की कठोर तपस्या का पारणा करने के लिये भिक्षार्थ घूम रहे थे। शरीर एकदम सूख गया था। उस समय के भोले लोग भगवान को अपना राजा समझकर अपने-अपने घर निमन्त्रित कर रहे थे। कोई उन्हें भिक्षा में धन देना चाहता था, कोई कन्या। इस बात का किसी को ज्ञान न था कि भगवान इन सब चीजों को त्याग चुके हैं। ये वस्तुएँ उनके लिये व्यर्थ हैं। उन्हें तो लम्बे उपवास का पारणा करने के लिये शुद्ध आहार की आवश्यकता है।
श्रेयांसकुमार उन्हें देखकर विचार में पड़ गया। उसी समय उसे ‘जाति स्मरण ज्ञान’ हो गया। थोड़ी देर के लिये उसे मूर्छा आ गई। कपूर और चन्दन वाले पानी के छीटे देने पर होश आया। ऊपर वाले महल से उतर कर वह नीचे आंगन में आ गया। इतने में भगवान भी उसके द्वार पर आ गये। उसी समय एक व्यक्ति श्रेयांसकुमार को भेंट देने के लिये इक्षुरस से भरे घड़े लाया।
श्रेयांसकुमार ने एक घड़ा हाथ में लिया और सोचने लगा-मैं धन्य हूँ जिसे इस प्रकार की समस्त सामग्री प्राप्त हुई है। सुपात्रों में श्रेष्ठ भगवान तीर्थंकर स्वयं भिक्षुक बनकर मेरे घर पधारे हैं, निर्दोष इक्षुरस से भरे हुए घड़े तैयार हैं। इनके प्रति मेरी भक्ति भी उमड़ रही है। यह कैसा शुभ अवसर है? यह सोचकर भगवान को प्रणाम करके उसने निवेदन किया-यह आहार सर्वथा निर्दोष है। अगर आपके अनुकूल हो, तो ग्रहण कीजिए। भगवान ने मौन रहकर हाथ फैला दिये। श्रेयांसकुमार भगवान के हाथों में इक्षुरस डालने लगा। अतिशय के कारण रस की एक बूंद भी नीचे जमीन पर नहीं गिरी। भगवान का कृश शरीर, स्वस्थ, उत्तम तथा शान्त हो गया। इक्षुरस का पान करते हुए उन्हें किसी ने देखा नहीं क्योंकि भगवान का यह जन्मजात अतिशय था।
उसी समय भगवान के पारणे से होने वाले हर्ष के कारण देवों ने – 1. गन्धोदकादि पांच वर्ण के पुष्पों की वृष्टि की। 2. गम्भीर मधुरस्वर वाली दुंदुभियाँ बजाई। 3. दिव्य वस्त्रों से बनी पताकाएँ फहराई। 4. अपनी कांति से दिशाओं को प्रकाशित करने वाले साढ़े बारह करोड़ रत्नों की वृष्टि की और 5. जय-जय शब्द करके दान का महात्म्य गाया। कुछ देवता घर के आंगन में उतरकर श्रेयांसकुमार की प्रशंसा करने लगे। दूसरे लोग भी श्रेयांसकुमार के घर पर इकट्ठे हो गए और पूछने लगे-भगवान के पारने की विधि आपने कैसे जानी? श्रेयांसकुमार ने उत्तर दिया – जाति स्मरण ज्ञान का अर्थ है पूर्वजन्म का स्मरण और यह मतिज्ञान का एक भेद है। इससे मैंने पिछले वे आठ भव जान लिये जिनमें मैं भगवान के साथ रहा था।
वर्तमान भव से पहले नवें भव में मेरे पड़पितामह भगवान ऋषभदेव का जीव ईशानकल्प देवलोक में ललितांग नाम का देव था। मैं उनकी स्नेहपात्री स्वयंप्रभा नाम की देवी थी। इस प्रकार स्वर्ग और मृत्युलोक में बारी-बारी से आठ भवों तक मैं प्रभु के साथ-साथ रहा हूँ। इस भव से तीसरे भव में विदेह क्षेत्र में भगवान के पिता वज्रसेन नामक तीर्थंकर थे। उनसे प्रभु ने दीक्षा ली।
भगवान के बाद मैंने भी दीक्षा ग्रहण की। उनके पास दीक्षित होने के कारण मैं दान आदि विधि को जानता हूँ, केवल इतने दिन मुझे पूर्वभव का स्मरण नहीं था। आज भगवान को देखने से जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया। पूर्व भव की सारी बातें मैं जान गया। इसीलिए भगवान का पारणा विधि पूर्वक हो गया।
मेरु पर्वत आदि के स्वप्न जो मैंने (श्री श्रेयांसकुमार), महाराजा पिताजी (बाहुबलीजी के पुत्र सोमप्रभजी) ने और श्री सुबुद्धि सेठजी ने देखे थे उनका वास्तविक फल यही है कि 1 वर्ष, 1 माह व 10 दिन के अनशन के कारण तीर्थंकर प्रभु श्री ऋषभदेवजी (आदिनाथजी) का शरीर सूख रहा था। उनका पारणा कराकर कर्मशत्रुओं पर विजय प्राप्त करने में सहायता की है। यह सुनकर श्रेयांसकुमार की सभी प्रशंसा करते हुए अपने-अपने स्थान चले गये। पूर्वभव के स्मरण के कारण श्रेयांसकुमार को सम्यक्त्व की प्राप्ति हुई इसलिए उसने भगवान को भक्तिपूर्वक दान दिया। श्रेयांसकुमार तत्त्वों में श्रद्धा रखता हुआ चिरकाल तक संसार के सुख भोगता रहा। भगवान को केवल ज्ञान उत्पन्न होने पर उसने दीक्षा स्वीकार कर ली। निरतिचार संयम पालते हुए घनघाति कर्मों का क्षय करके मोक्ष प्राप्त किया।
छद्यस्थावस्था में विचरते हुए भगवान को एक हजार वर्ष व्यतीत हो गये। एक समय वे पुरिमताल नगर के शकटमुख उद्यान में पधारे। फाल्गुन कृष्णा एकादशी के दिन भगवान तेले का तप करके वट वृक्ष के नीचे कायोत्सर्ग में स्थित हुए। उत्तरोत्तर परिणामों की शुद्धता के कारण चार घातिकर्मों (घातिकर्म : 1. ज्ञानावरणीय, 2. दर्शनावरणीय, 3 मोहनीय और 4. अन्तराय) का क्षय करके भगवान ने “केवलज्ञान केवलदर्शन” प्राप्त किया। देवों ने केवलज्ञान महोत्सव करके समवशरण की रचना की। देव-देवी, मनुष्य-स्त्री, तिर्यंच आदि बारह प्रकार की परिषद प्रभु का उपदेश सुनने के लिये आई। उस समय भगवान 35 सत्य वचनातिशय और 34 अतिशयों से सम्पन्न थे। वे ये हैं- सत्य वचन के 35 अतिशय ये हैं-
- संस्कारवत्व-संस्कृत आदि गुणों से युक्त होना अर्थात् वाणी का भाषा और व्याकरण की दृष्टि से निर्दोष होना।
- उदातत्त्व-उदात्तस्वर अर्थात् स्वर का ऊँचा होना।
- उपचारोपेतत्व-ग्राम्य दोष से रहित होना।
- गम्भीरशब्दता-मेघ की तरह आवाज में गम्भीरता होना।
- अनुनादित्व-आवाज का प्रतिध्वनि सहित होना।
- दक्षिणत्व-भाषा में सरलता होना।
- उपनीतरागत्व-मालव केशिकादि ग्राम राग से युक्त होना अथवा स्वर में ऐसी विशेषता होनी कि श्रोताओं में व्याख्येय
विषय के प्रति बहुमान के भाव उत्पन्न हो। - महार्थत्व-अभिधेय अर्थ में महानता एवं परिपुष्टता का होना। थोड़े शब्दों में अधिक अर्थ कहना।
- अव्याहत पौर्वापर्यत्व-वचनों में पूर्वापर विरोध न होना।
- शिष्टत्व-अभिमत सिद्धान्त का कथन करना अथवा वक्ता की शिष्टता सूचित हो ऐसा अर्थ कहना।
- असंदिग्धत्व-अभिमत वस्तु का स्पष्टतापूर्वक कथन करना जिससे कि श्रोताओं के दिल में सन्देह न रहें।
- अपहृतान्योत्तरत्व-वचन का दूषण रहित होना और इसलिए शंका समाधान का मौका न आने देना।
- हृदयग्राहित्व-वाच्य अर्थ को इस ढंग से कहना कि श्रोता का मन आकृष्ट हो एवं वह कठिन विषय भी सहज ही में
समझ जाए। - देशकालाव्यतीतत्व-देशकाल के अनुरुप अर्थ कहना।
- तत्त्वानुरूपत्व-विवक्षित वस्तु का जो स्वरूप हो उसी के अनुसार उसका व्याख्यान करना।
- अप्रकीर्णप्रसृतत्व-प्रकृत वस्तु का उचित विस्तार के साथ व्याख्यान करना। अथवा असम्बन्ध अर्थ का कथन न
करना एवम् सम्बन्ध अर्थ का भी अत्यधिक विस्तार न करना। - अनयोन्यप्रगृहीतत्व-पद और वाक्यों का सापेक्ष होना।
- अभिजातत्व-भूमिकानुसार विषय और वक्ता का होना।
- अतिस्निग्धमधुरत्व-भूखे व्यक्ति को जैसे घी, गुड़ आदि परम सुखकारी होते हैं उसी प्रकार स्नेह एवं माधुर्य परिपूर्ण
वाणी का श्रोता के लिये परम सुखकारी होना। - अपरमर्मविद्धत्व-दूसरे के मर्म रहस्य का प्रकाशन होना।
- अर्थधर्माभ्यासानपेतत्व-मोक्ष रूप अर्थ एवं श्रुतचारित्र रूप धर्म से सम्बद्ध होना।
- उदारत्व-प्रतिपाद्य अर्थ का महान होना अथवा शब्द और अर्थ की विशिष्ट रचना होना।
- परनिन्दात्मोत्कर्षविप्रयुक्तत्व-दूसरे की निन्दा एवं आत्म प्रशंसा से रहित होना।
- उपगतश्लाघत्व-वचन में उपरोक्त (परनिंदात्मोत्कर्ष विप्रयुत्व) गुण होने से वक्ता की श्लाघा-प्रशंसा होना।
- अनपनीतत्व-कारक, काल, वचन, लिंग आदि के विपर्यास रूप दोषों का न होना।
- उत्पादिताविच्छिन्नकुतूहलत्व- श्रोताओं में वक्ताविषयक निरन्तर कुतूहल बने रहना।
- अद्भुतत्व-वचनों के अश्रुतपूर्व होने के कारण श्रोता के दिल में हर्षरूप विस्मय का बने रहना।
- अनतिविलम्बित्व-विलम्ब रहित होना अर्थात् धारा-प्रवाह से उपदेश देना।
- विभ्रमविक्षेपकिलिकिंचितादि विमुक्तत्व-वक्ता के मन में भ्रांति होना विभ्रम है। प्रतिपाद्य विषय में उसका दिल न
लगना विक्षेप है। रोष, भय, लोभ आदि भावों के सम्मिश्रण को किलिकिंचित कहते हैं।
इनसे तथा मन के अन्य दोषों से रहित होना। - अनेकजातिसंश्रयाद्विचित्रत्व-वर्णनीय वस्तुओं के विविध प्रकार की होने की कारण वाणी में विचित्रता होना।
- आहितविशेषत्व-दूसरे पुरुषों की अपेक्षा वचनों में विशेषता होने से श्रोताओं को विशिष्ट बुद्धि प्राप्त होना।
- साकारत्व-वर्ण पद और वाक्यों का अलग-अलग होना।
- सत्वपरिग्रहतत्व-भाषा का ओजस्वी प्रभावशाली होना।
- अपरिखेदित्व-उपदेश देते हुए थकावट अनुभव न करना।
- अव्यच्छेदत्व-जो तत्व समझना चाहते हैं उसकी सम्यक् प्रकार से सिद्धि न हो तब तक बिना व्यवधान के उसका
व्याख्यान करते रहना।
पहले सात अतिशय शब्द की अपेक्षा हैं। शेष अर्थ की अपेक्षा हैं।
तीर्थंकर के चौंतीस अतिशय :-
- तीर्थंकरदेव के मस्तक और दाढ़ी मूँछ के बाल बढ़ते नहीं हैं। उनके शरीर के रोम और नख सदा अवस्थित रहते हैं।
- उनका शरीर सदा स्वस्थ तथा निर्मल रहता है।
- शरीर में रक्त मांस गाय के दूध की तरह श्वेत होते हैं।
- उनके श्वासोच्छ्वास में पद्म एवं नीलकमल की अथवा पद्म तथा उत्पलकुष्ट (गन्धद्रव्य विशेष) की सुगन्ध आती है।
- उनका आहार और निहार (शोचक्रिया) प्रच्छन्न होता है चर्मचक्षु वालों को दिखाई नहीं देता।
- तीर्थंकर देव के आगे आकाश में धर्मचक्र रहता है।
- उनके ऊपर तीन छत्र रहते हैं।
- उनके दोनों ओर तेजोमय (प्रकाशमय) श्रेष्ठ चँवर रहते हैं।
- भगवान के लिये आकाश के समान स्वच्छ स्फटिक मणि का बना हुआ पादपीठ वाला सिंहासन होता है।
- तीर्थंकर देव के आगे आकाश में बहुत ऊँचा हजारों छोटी-छोटी पताकाओं से परिमण्डित इंद्रध्वज चलता है।
- जहाँ भगवान ठहरते हैं अथवा बैठते हैं वहाँ पर उसी समय पत्र, पुष्प और पल्लव से शोभित छत्र, ध्वज, घंटा और
पताका सहित अशोक वृक्ष प्रकट होता है। - तीर्थंकर भगवान के कुछ पीछे मस्तक के पास अति देदीप्यमान भामण्डल रहता है।
- भगवान जहाँ विचरते हैं वहाँ का भूभाग बहुत समतल एवं रमणीय हो जाता है।
- भगवान जहाँ विचरते हैं वहाँ काँटे अधोमुख हो जाते है।
- भगवान जहाँ विचरते हैं वहाँ ऋतुएँ सुखस्पर्शवाली यानी अनुकूल हो जाती हैं।
- भगवान जहाँ विचरते हैं वहाँ संवर्तक वायु द्वारा एक योजन पर्यंत क्षेत्र चारों ओर से शुद्ध साफ हो जाता है।
- भगवान जहाँ विचरते हैं वहाँ मेघ आवश्यकतानुसार बरसकर आकाश व पृथ्वी में रही हुई रज को शान्त कर देते हैं।
- भगवान जहाँ विचरते हैं वहाँ जानु प्रमाण देवकृत पुष्पवृष्टि होती है। फूलों के डंठल सदा नीचे की ओर रहते हैं।
- भगवान जहाँ विचरते हैं वहाँ अमनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रस, रूप व गन्ध नहीं रहते।
- भगवान जहाँ विचरते हैं वहाँ मनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रस, रूप व गन्ध प्रकट होते हैं।
- देशना देते समय भगवान का स्वर अतिशय हृदयस्पर्शी होता है और एक योजन तक सुनाई देता है।
- तीर्थंकर अर्द्धमागधी भाषा में उपदेश करते हैं।
- उनके मुख से निकली हुई अर्द्धमागधी भाषा में यह विशेषता होती है कि आर्य, अनार्य सभी मनुष्य तथा मृग, पशु, पक्षी
व सरीसृप जाति के तिर्यंच प्राणी उसे अपनी भाषा में समझते हैं और उन्हें वह भाषा हितकारी, सुखकारी कल्याणकारी
प्रतीत होती है। - पहले से ही जिनके वैर बँध हुआ है ऐसे भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक देव प्रभु के चरणों में आकर अपना
वैर भूल जाते हैं और शान्तचित्त होकर धर्मोपदेश सुनते हैं। - तीर्थंकर के पास आकर अन्य तीर्थी भी उन्हें वंदन करते हैं।
- तीर्थंकर भगवान के पास आकर अन्य तीर्थ वाले लोग निरुत्तर हो जाते हैं। जहाँ – जहाँ भी तीर्थंकर प्रभु विचरण करते
हैं वहाँ 25 योजन अर्थात् सौ कोस के अंदर- - ईति-चूहे आदि जीवों से धान्यादि का उपद्रव नहीं होता।
- मारी अर्थात् जनसंहारक प्लेग आदि उपद्रव नहीं होता।
- स्वचक्र का भय (स्वराज्य की सेना से उपद्रव) नहीं होता।
- परचक्र का भय (पर राज्य की सेना से उपद्रव) नहीं होता।
- अधिक वर्षा नहीं होती।
- वर्षा का अभाव नहीं होता।
- दुर्भिक्ष-दुष्काल नहीं पड़ता।
- पूर्वोत्पन्न उत्पात तथा व्याधियाँ भी शान्त हो जाती हैं।
इन चौंतीस अतिशयों में से दो से पांच तक के चार अतिशय तीर्थंकर देव के जन्म से ही होते हैं। इक्कीस से चौंतीस तक तथा
भामंडल ये पंद्रह अतिशय घाती कर्मों के क्षय होने से प्रकट होते हैं। शेष पंद्रह अतिशय देवकृत होते हैं।
दीक्षा लेकर जब से श्री ऋषभदेवजी भगवान विनीता नगरी से विहार कर गये थे तभी से माता मरुदेवी उनके कुशल समाचार प्राप्त
न होने के कारण बहुत चिन्तातुर हो रही थी। इसी समय भरत महाराज उनके चरण वन्दन करने के लिये गये। वह उनसे भगवान
के विषय में पूछ ही रही थी कि इतने में एक पुरुष ने आकर भरत महाराज को भगवान को केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ है यह बधाई दी।
उसी समय दूसरे पुरुष ने आयुधशाला में चक्ररत्न उत्पन्न होने की बधाई दी। और तीसरे पुरुष में पुत्र जन्म की बधाई दी। सबसे
पहले केवलज्ञान महोत्सव मनाने का निश्चय करके भरत महाराज भगवान श्री ऋषभदेव को वंदन करने के लिये रवाना हुए, हाथी पर
सवार होकर मरुदेवी महामाता भी साथ में पधारीं।
समवशरण के नजदीक पहुँचने पर देवों के आगमन व केवलज्ञान के साथ प्रकट होने वाले अष्टमहाप्रतिहार्य
1. अशोकवृक्ष, 2. देवकृत अचित्त पुष्पवृष्टि, 3. दिव्यध्वनि 4. चौसठ चँवर के जोड़े, 5. सिंहासन, 6. देवदुन्दुभि, 7. तीन छत्र व 8. प्रभा
मण्डल की अद्भूत विभूति को देखकर माता मरुदेवी को बहुत हर्ष हुआ। वह मन ही मन विचार करने लगी कि मैं तो समझती थी
कि मेरा लाल ऋषभकुमार जंगल में गया है, इससे उसको तकलीफ होगी परन्तु मैं देख रही हूँ कि ऋषभकुमार तो बड़े आनन्द में है
और उसके पास तो बहुत ठाठ लगा हुआ है। मैं वृथा मोह कर रही थी। इस प्रकार अध्यवसायों की शुद्धि के कारण माता मरुदेवी
ने घाति कर्मों का क्षय करके केवलज्ञान, केवलदर्शन उपार्जन कर लिये। उसी समय आयु कर्म का भी अन्त आ चुका था। सब
आठों ही कर्मों का नाश कर महामाता श्री मरुदेवीजी इस आरे में सर्वप्रथम मोक्ष पधार गई। अर्थात् सर्वप्रथम मरुदेवी महामाता ने
फाल्गुन कृष्णा एकादशी के शुभ दिन इस अवसर्पिणी काल में मोक्ष के द्वार खोले।
प्रथम चक्रवर्ती भरत महाराज भगवान को वन्दना नमस्कार कर समवशरण में बैठ गये।
इस अवसर्पिणी काल के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेवजी ने केवलज्ञान केवल दर्शन होने के पश्चात् बारह प्रकार की परिषदा में
जो धर्मोपदेश दिया, वह इस प्रकार था –
“आधि, व्याधि, जरा व मृत्यु रूपी सैकड़ों ज्वालाओं से घिरा हुआ यह संसार, देदीप्यमान अग्नि के समान है। सभी सांसारिक प्राणी इस दावानल से भयभीत हैं। इस भय से मुक्त होने का प्रयत्न करना ही बुद्धिमानों का कर्त्तव्य है। जिस प्रकार असह्य गर्मी से बचने के लिए सुखार्थी लोग, रेगिस्तानी मार्ग को ठण्डे समय में पार करते हैं। उस समय समझदार प्राणी रात की
सुखमय नींद में पड़े रहने का प्रमाद नहीं करते। वे जानते हैं कि यदि रात के समय सोते रहे, तो दिन की भयंकर गर्मी में, अग्नि के समान धधकती हुई रेती पर चलना महान् कष्टकर होगा।
अनेक जीवयोनि रूप संसार समुद्र में गोते लगाते हुए जीव को उत्तम रत्न के समान मनुष्य-जन्म की प्राप्ति होना महान् कठिन है। जिस प्रकार दोहला (वकुल आदि कई प्रकार की वनस्पति ऐसी होती है कि जिनके अनुकूल क्रिया होने पर प्रफुल्लित तथा फलयुक्त होती है।) पूर्ण करने से वृक्ष फलदायक होता है, उसी प्रकार परलोक की साधना करने से प्राणियों का मनुष्य-जन्म
सफल होता है। जिस प्रकार दुष्टजन मीठे वचनों से मोहित करके लोगों को ठग लेते हैं, उनकी मीठी वाणी, अंत में दुःखदायक होती है, उसी प्रकार इन्द्रियों के मोहक विषय पहले तो मधुर लगते हैं, पर उनका परिणाम महान् दुःखप्रद होता है। जिस प्रकार बहुत ऊँची पहुँची हुई वस्तु अन्त में नीचे गिरती है, उसी प्रकार अनेक प्रकार का प्राप्त हुआ सुखद संयोग, अन्त में वियोग दुःख में ही परिणत होता है। मनुष्यों को प्राप्त हुआ धन, यौवन और आयु, ये सभी नाशवान् हैं। जिस प्रकार मरुस्थल में स्वादिष्ट जल का झरना नहीं होता, उसी प्रकार चतुर्गतिमय संसार में भी सुख नहीं होता। क्षेत्र दोष से व परमाधामी देवों की असह्य मार से, दारुण दुःखों को भोगने वाले नारकों के लिए सुख तो है ही कहाँ ?
शीत, ताप वायु व जल से, वध, बन्धन व क्षुधादि विविध प्रकार से पीड़ित, तिर्यश्च जीवों को भी कौन-सा सुख है ?
गर्भावास, व्याधि, जरा, दरिद्रता और मृत्यु के दुःखों से जकड़ा हुआ मनुष्य भी सुखी नहीं है।
पारस्परिक मात्सर्य, अमर्ष, कलह व च्यवन (मरण) आदि दुःखों के सद्भाव में भी क्या देवी-देवता सुखी माने जा सकते हैं ? इस प्रकार चारों गतियों में दुःख ही दुःख भरा हुआ है, फिर भी अज्ञानी जीव, पानी की नीची गति के समान संसार की ओर ही झुकते हैं। अतः हे भव्यजीवों ! जिस प्रकार साँप को दूध पिलाने से विष की वृद्धि होती है, उसी प्रकार मनुष्य-जन्म का
दुरुपयोग करने से दुःखों की वृद्धि होती है। अतः इस मनुष्य जन्म रूपी दूध के द्वारा संसार रूपी विष की वृद्धि नहीं करनी चाहिए।
हे विवेकशील प्राणियों ! इस संसार-निवास में उत्पन्न होते हुए अनेक प्रकार के दुःखों का विचार करो। यदि दुःखों के कारण को ही नष्ट करके सुखी बनना है, तो संसार को छोड़ो और मोक्ष के लिए प्रयत्नशील बनो। गर्भ का दुःख, नरक के दुःख के समान है। प्राणियों को जन्म के समय-प्रसव सम्बन्धी वेदना वैसी ही होती है, जैसी कुंभी (नारकी के नेरियों का उत्पत्ति स्थान) के मध्य में खींच कर निकाले हुए नारक को होती है। मुक्त जीवों को ऐसी वेदना कभी नहीं होती। मुक्त जीवों को न तो, शस्त्राघात सम्बन्धी पीड़ा होती है, न व्याधि जन्य ही। यमराज का अग्रदूत, अनेक प्रकार की पीड़ाओं का कारण और सभी प्रकार के तेज और पराक्रम का हरण करके, जीव को पराधीन बनाने वाला-ऐसा बुढ़ापा भी मुक्त जीवों को प्राप्त नहीं होता और भव-भ्रमण की कारण रूप मृत्यु भी (जो देवता तक को मार देती है) मोक्ष प्राप्त सिद्धात्मा से दूर रहती है।
मोक्ष में परम आनन्द, महान् अद्वैत व अव्यय सुख, शाश्वत स्थिति और केवल ज्ञानरूपी सूर्य की अखण्ड ज्योति रही हुई है।
इस शाश्वत स्थान को वही आत्मा प्राप्त कर सकती है, जो ज्ञान, दर्शन व चारित्र रूपी तीन उज्जवल रत्नों का पालन करती हो।”
ज्ञान रत्न : रत्नत्रय की आराधना करने का उपदेश देते हुए भगवान् ने आगे कहा :-
“जीवादि तत्वों का संक्षेप अथवा विस्तार से यथार्थ बोध होना ही सम्यग्ज्ञान है। यह मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञान-ऐसे पाँच भेद वाला है।
मतिज्ञान-अवग्रह, इर्हादि, बहुग्राही, अबहुग्राही आदि भेदयुक्त व इन्द्रिय व अनिन्द्रिय से उत्पन्न होने वाला मतिज्ञान है।
श्रुतज्ञान-अंग, उपांग, पूर्व और प्रकीर्णक सूत्रों से अनेक प्रकार से विस्तार पाया हुआ तथा ‘स्यात्’ पद से अलंकृत श्रुतज्ञान अनेक प्रकार का है।
अवधिज्ञान-देव और नारक को भव के साथ और मनुष्य-तिर्यंच को क्षयोपशम से उत्पन्न होने वाले अवधिज्ञान के मुख्यतः छः भेद हैं।
मनःपर्ययज्ञान-ऋतुमति और विपुलमति, इन दो भेदों से मनःपर्यय ज्ञान होता है। विपुलमति मनःपर्ययज्ञान विशुद्ध एवं अप्रतिपाति होता है।
केवलज्ञान-समस्त द्रव्य और सभी पर्यायों को विषय करने वाला, विश्व लोचन के समान, अनन्त, एक और इन्द्रियों के विषय से रहित केवलज्ञान होता है।”
दर्शन ज्ञान : शास्त्रोक्त तत्व में रुचि होना सम्यक् श्रद्धान है। स्वभाव से व गुरु के उपदेश से, दो प्रकार से प्राप्त होता है।
अनादि-अनन्त संसार के चक्र में भटकने वाले प्राणियों को, ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय और अन्तराय इन चार कर्मों
की उत्कृष्ट स्थिति तीस कोटानुकोटि सागरोपम प्रमाण होती है। गोत्र और नाम कर्म की स्थिति बीस कोटानुकोटि सागरोपम प्रमाण
होती है और मोहनीय कर्म की स्थिति सत्तर कोटानुकोटि सागरोपम की होती है। जिस प्रकार पर्वत में से निकली हुई नदी के प्रवाह
में आया हुआ पत्थर, अचड़ाते टकराते अपने आप गोल हो कर कोमल हो जाता है, उसी प्रकार कर्मों को स्थिति क्रमशः 29,
19, और 69 कोटाकोटि से कुछ अधिक क्षय हो जाय और एक कोटाकोटि सागरोपम से कुछ कम रह जाय, तब प्राणी
यथाप्रवृत्तिकरण से ग्रंथीदेश को प्राप्त करता है।
ग्रंथी-राग-द्वेष के ऐसे परिणाम कि जिनका भेदन करना बड़ा कठिन होता है। यह राग-द्वेष की गाँठ, काष्ठ की गाँठ जैसी
अत्यन्त दृढ़ और कठिनाई से टूटने वाली होती है। जिस प्रकार किनारे तक आया हुआ जहाज, विपरीत वायु चलने से पुनः समुद्र
में चला जाता है, उसी प्रकार रागादि से प्रेरित कितने ही जीव, ग्रंथी के निकट आ कर भी उसे काटे बिना वापिस लौट जाते हैं।
कुछ जीव, ग्रंथी के निकट आते-आते ही पुनः लौट जाते हैं और कितने ही प्राणी ग्रंथी के निकट आ कर ठहरे जाते हैं। शेष कुछ
ही प्राणी वैसे उत्तम भविष्य वाले होते हैं, जो अपूर्वकरण से अपनी शक्ति लगा कर के मिथ्यात्व को विरल कर अन्तर्मुहूर्त मात्र के
लिए सम्यग्दर्शन को प्राप्त करते हैं। यह नैसर्गिक (स्वाभाविक) श्रद्धान कहलाती है और जो सम्यक्त्व गुरु के उपदेश के
आवलंबन से प्राप्त हो, वह अधिगम सम्यक्त्व कहलाता है।
सम्यक्तव के औपशमिक, सास्वादान, क्षयोपशमिक, वेदक और क्षायिक, ये पाँच प्रकार हैं।
- अनन्तानुबंधी कषाय का उपशम या क्षयोपशम या विसंयोजना एवं तीन दर्शन मोहनीय-इन सात प्रकृतियों का उपशम हो
जाता है ऐसी आत्मा को औपशमिक सम्यक्त्व होता है। - सम्यक्त्व का त्याग कर के मिथ्यात्व के सम्मुख होते हुए प्राणी को अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय होते, जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह आवलिका पर्यन्त, सम्यक्त्व का परिणाम रहता है। उसे सास्वादन समकित कहते हैं।
- मिथ्यात्व-मोहनीय का क्षय और उपशम होने से होने वाला बोध, क्षयोपशमिक सम्यक्त्व कहलाता है। इसमें सम्यक्त्व मोहनीय का उदय रहता है।
- जिस भव्यात्मा के अनन्तानुबन्ध कषाय चतुष्क, मिथ्यात्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय का क्षय हो गया हो,ऐसी सम्यक्त्व-मोहनीय के अन्तिम अंश का वेदन करते हुए क्षायक-भाव को प्राप्त करने में तत्पर आत्मा का परिणाम ‘वेदक-सम्यक्त्व’ कहता है। (इसकी स्थिति एक समय मात्र की है)।
- अनन्तानुबन्धी कषाय चौकड़ी और दर्शन-त्रिक, मोहनीय कर्म की इन सातों प्रकृतियों को क्षय करने वाली प्रशस्त भाव वाली आत्मा को प्राप्त (अप्रतिपाति) सम्यक्त्व ‘क्षायिक सम्यक्त्व’ कहाता है। सम्यग्दर्शन, गुण की अपेक्षा-1. कारक, 2. रोचक और 3. दीपक, यों तीन प्रकार का हैं।
कारक-जो विरति भाव को उत्पन्न करने वाला-संयम और तप का आचरण कराने वाला है, वह कारक सम्यक्त्व है।
रोचक-जिसके परिणाम स्वरूप तत्वज्ञान में, हेतु और उदाहरण बिना ही दृढ़ प्रतीत हो, रुचि उत्पन्न हो, वह रोचक सम्यक्त्व कहलाता है।
दीपक-जो सम्यक्त्व को प्रदिप्त करे (जाहिर करे अथवा दूसरे श्रोता के सम्यक्त्व को प्रभावित करे), वह ‘दीपक सम्यक्त्व’ है (यह प्रथम गुणस्थान में होती है)।
1. शम 2. संवेग 3. निर्वेद 4. अनुकम्पा और 5. आस्तिक्य। इन पाँच लक्षणों से सम्यक्त्व की पहिचान होती है।
शम-जिसके परिणाम स्वरूप अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय नहीं होता। कषाय के शक्तिशाली प्रभाव (अनन्तानुबन्धी प्रकृति) के अभाव से, आत्मा में जो शान्ति उत्पन्न होती है, वह ‘शम’ नामक लक्षण है।
संवेग-कर्म परिणाम और संसार की असारता का चिन्तन करते हुए जीव को विषयों के प्रति वैराग्य भाव उत्पन्न हो, ‘संवेग’ कहते हैं (मोक्ष की अभिलाषा अथवा धर्म-प्रेम को भी ‘संवेग’ कहते हैं)।
निर्वेद-संवेगवंत आत्मा को संसार कारागृह के समान और स्वजन, बन्धन रूप लगते हैं। इस प्रकार संसार और सांसारिक संयोगों से होने वाला विरक्ति भाव ‘निर्वेद’ लक्षण है।
अनुकम्पा-एकेन्द्रियादि सभी प्राणियों को संसार-सागर में डूबते हुए देख कर हृदय का आर्द्र-कोमल हो जाना, दुःखी होना
और दुःख निवारण के उपाय में यथाशक्ति प्रवृत्ति करना “अनुकम्पा” है।
आस्तिक्य-इतर दर्शनों के तत्वों को सुनने पर भी आर्हत् तत्व (जिन प्रणीत तत्व) में आकांक्षा रहित रुचि बनी रहना-दृढ़
श्रद्धा रहना, ‘आस्तिक्य’ नाम का लक्षण है।
इस प्रकार सम्यग्दर्शन रूपी रत्न का स्वरूप है। दर्शन-रत्न की क्षणभर के लिए भी प्राप्ति हो जाय, तो इसके अभाव में पहले
जो मति अज्ञान था, वह (अज्ञान) पराभूत होकर और विभंगज्ञान मिट कर अवधिज्ञान के भाव को प्राप्त हो जाता है।
चारित्र रत्न : सर्वथा प्रकार से सावद्य योग का त्याग करना ‘चारित्र’ कहलाता है। यह अहिंसा सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य
और अपरिग्रह, यों 5 व्रतों से कहा जाता है। 5 महाव्रत हैं। 5-5 भावना (कुल 25 भावना) से युक्त ये महाव्रत मोक्ष साधना के
लिए अवश्य पालनीय है।
अहिंसा-प्रमाद के योग से त्रस और स्थावर जीवों के जीवन का नाश नहीं करना, नहीं कराना, नहीं अनुमोदना करना मन,
वचन, काया से अहिंसा महाव्रत है।
सत्य-प्रिय, हितकारी और सत्य वचन बोलना, ‘सुनृत’ (सत्य) व्रत कहलाता है अप्रिय और अहितकारी सत्य वचन भी
असत्य के समान होता है। असत्य बोलना नहीं, सत्य बोलने वाले को अच्छा जानना नहीं यह सत्य महाव्रत है।
अस्तेय-बिना दी हुई वस्तु का ग्रहण नहीं करना ‘अस्तेय व्रत’ है। क्योंकि द्रव्य (धन-धान्यादि) मनुष्य के बाह्य प्राण के
समान है। इसका हरण करने वाला, प्राणों का हरण करता है-ऐसा समझना चाहिए। दुसरों से ग्रहण करवाना नहीं,
ग्रहण करते हुए को अच्छा जानना नहीं, मन-वचन-काया से यह अचौर्य महाव्रत है।
ब्रह्मचर्य-दिव्य (वैक्रिय) और औदारिक शरीर से अब्रह्मचर्य के सेवन का मन, वचन और काया से, करन, करावन और
अनुमोदन का त्याग करना-‘ब्रह्मचर्य व्रत’ है। इसके अठारह भेद होते हैं।
अपरिग्रह-समस्त पदार्थों पर से मोह (मूरच्छा) का त्याग करना ‘अपरिग्रह व्रत’ है। मोह के कारण अप्राप्त वस्तु पर भी चित्त
में विप्लव होता है। इसलिए अपरिग्रह व्रत मूरच्छा त्याग रूप है। ममत्व भाव रखना नहीं, रखाना नहीं, रखते हुए
को अच्छा समझना नहीं, मन-वचन-काया से यह अपरिग्रह महाव्रत है।
यतिधर्म में अनुरक्त ऐसे यतिन्द्रों के लिए उपरोक्त स्वरूप वाला सर्वचारित्र होता है। गृहस्थों के लिए देश (आंशिक) चारित्र
इस प्रकार का है।
सम्यक्त्व युक्त पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत, इस प्रकार गृहस्थों के बारह व्रत हैं।
हिंसा त्याग-लंगड़ा-लूलापन, कोढ़ अन्धत्यादि हिंसा के दुःखदायक फल देख कर बुद्धिमान पुरुष को निरपराध त्रस जीवों
की संकल्पी हिंसा का त्याग कर देना चाहिए।
असत्य त्याग-गूंगा, तोतला, अस्पष्ट वचन और मुखरोगादि अनिष्ट फल के कारणों को समझ कर कन्या, गाय और भूमि
संबंधी असत्य, धरोहर दबा लेना और झूठी साक्षी देना, ये 5 प्रकार के बड़े असत्य का त्याग करना चाहिए।
अदत्त त्याग-दुर्भाग्य, दासत्व, अंगच्छेद, दरिद्रताआदि कटु परिणाम का कारण जानकर स्थूल चोरी का त्याग करना चाहिए।
अब्रह्म त्याग-नपुंसकत्व, इन्द्रिय-छेद आदि बुरे फलों का कारण ऐसे अब्रह्मचर्य के फल का विचार करके बुद्धिमान् प्राणियों
को स्वस्त्री में ही संतोष रखकर, परस्त्री का त्याग करना चाहिए।
परिग्रह त्याग-असंतोष, अविश्वास, आरम्भ और दुःख, ये सभी परिग्रह की मूच्छा के फल हैं। इसलिए परिग्रह का परिणाम
करना चाहिए। ये पाँच अणुव्रत हैं।
दिग्विरति-छहों दिशाओं में मर्यादा की हुई भूमि की सीमा का उल्लंघन नहीं करना। यह प्रथम गुणव्रत है।
भोगोपभोग परिणाम व्रत-भोगोपभोग (खान-पान आदि में काम में आने वाली वस्तुओं) का शक्ति के अनुसार परिणाम
रख कर शेष का त्याग कर देना, यह दूसरा गुणव्रत है।
अनर्थदण्ड त्याग-1 आर्त्त और रौद्र, ये दो अपध्यान हैं इनका आचरण 2 पापकर्म का उपदेश 3 हिंसक अधिकरण
(शस्त्रादि) देना व 4 प्रमाद का आचरण करना, यह 4 प्रकार का अनर्थ-दण्ड है। शरीरादि व कुटुम्ब-
परिवारादि के लिए हिंसादि पाप किये जायें, वे अर्थदण्ड हैं। इसके अलावा अनर्थ दण्ड है। इस अनर्थ
दण्ड का त्याग करना तीसरा गुणव्रत है।
सामायिक व्रत- आर्त्त-रौद्र ध्यान तथा सावद्य योग का त्याग कर के मुहूर्त (दो घड़ी) तक समताभाव धारण करना-
सामायिक नाम का प्रथम शिक्षा व्रत है।
देशावकाशिक-दिग्व्रत (छठे व्रत) में दिशा का जो परिमाण किया है, उसमें दिन और रात्रि संबंधी संक्षेप करना, तथा अन्य
व्रतों को भी संक्षेप करना। दया, संवर 14 नियम चित्तारना, देशावकाशिक नामक दूसरा शिक्षाव्रत है।
पौषधोपवास-चार पर्व दिन (अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या और पूर्णिमा-ये 4 तथा दूसरे पक्ष की अष्टमी, चतुर्दशीयों कुल
छह) में उपवासादि तप करना, कुव्यापार (सावद्य व्यापार) का त्याग करना, ब्रह्मचर्य का पालन करना और
स्नानादि क्रिया का त्याग करना “पौषधोपवास व्रत” नाम का तीसरा शिक्षा व्रत है। अतिथिसंविभाग व्रत –
प्रतिदिन चौदह प्रकार की वस्तुओं में से निर्दोष हो उसे संत-मुनिराजों को देवें। यह बारहवां व्रत है।
आदि तीर्थंकर भगवान् श्री ऋषभदेवजी ने केवलज्ञान प्राप्त होने के बाद, प्रथम धर्म देशना दी।
भगवान के धर्मोपदेश से श्रोताओं को अपूर्व शान्ति मिली। भगवान के उपदेश से बोध पाकर भरत महाराज के पुत्र ऋषभसेन
ने पांच सौ पुत्रों और सात सौ पौत्रौं के साथ अनेकों ने भगवान के पास दीक्षा अंगीकार की। चक्रवर्ती भरत महाराज की बहिन
सती ब्राह्मी ने भी अनेक स्त्रियों के साथ संयम अंगीकार किया।
प्रभु श्री ऋषभदेवजी के समवशरण में बैठे हुए बहुत से श्रोताओं ने श्रावक व्रत लिये और बहुतों ने सम्यक्त्व धारण किया। उसी
समय साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका रूप चतुर्विध संघ की स्थापना की। प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेवजी ने श्री ऋषभसेनजी आदि
84 चौरासी पुरुषों को उप्पण्णेड़ वा विगमेइ वा धुवेइ वा इस त्रिपदी का उपदेश दिया। जिस प्रकार जल पर तेल की बूँद फैल
जाती है और एक बीज से हजारों सैंकड़ों बीजों की प्राप्ति होती है उसी प्रकार त्रिपदी के उपदेश मंत्र से उनका ज्ञान बहुत विस्तृत हो
गया। उन्होंने अनुक्रम से चौदह पूर्व और द्वादशांगी की रचना की। इस प्रकार भगवान श्री आदिनाथजी के 84 गणधर हुए।
केवल ज्ञान उत्पन्न होने के पश्चात् तीर्थंकर भगवान श्री ऋषभदेवजी 1 हजार वर्ष कम 1 लाख पूर्व तक जनपद में विचरते रहे
और धर्मोपदेश द्वारा अनेक भव्य जीवों का उद्धार करते रहे।
इस अवसर्पिणी काल के प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेवजी के श्री ऋषभसेनजी आदि 84 गणधर, 84,000 मुनि, 3,00,000
साध्वी, 3,50,000 श्रावक, 55,4000 श्राविकाएँ, 4,750 चौदह पूर्वधर, 9,000 अवधिज्ञानी, 20,000 केवलज्ञानी,
20,600 वैक्रिय लब्धिधारी, 12,650 मनःपर्यवज्ञानी, 12,650 वादी और 22,900 अणुत्तरविमानवासी मुनि थे।
प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेवजी भव्य जीवों को मोक्षमार्ग बताते हुए और अपने तीर्थंकर नामकर्मादि की निर्जरा करते हुए
ग्रामानुग्राम विचरण करते रहे। प्रभु के उपदेश से प्रभावित होकर मोक्ष की अभिलाषा रखने वाले लाखों नर-नारी प्रव्रजित हुए।
लाखों ने श्रावक धर्म अंगीकार किया। भगवान का सभी जगह सहजरूप से पदार्पण हो रहा था। परम उपकारी, धर्म के उन्नायक,
श्री ऋषभदेवजी ने अपना निर्वाणकाल समीप जानकर दस हजार मुनियों के साथ अष्टापद पर्वत पर पधारे। एक शिला पर पद्मासन
लगा कर विराजमान हो गये। वहाँ सब ने अनशन किया। छः दिन तक उनका अनशन चलता रहा। अनाहारक दशा में बाधक
आहार पानी छूट गया। चौदह भक्त जितने काल तक निराहार तप और निश्चल-पादपोपगमन दशा में रहे। अघातिया कर्मों की
स्थिति व शरीर सम्बन्ध क्षय होने ही वाला था। इस अपूर्व स्थिति को प्राप्त होने के लिए शुक्ल-ध्यान की तीसरी श्रेणी में प्रवेश
हुआ। योगों का निरुंधन होने लगा। योग निरोध होते ही 14 वें गुणस्थान में प्रवेश कर शुक्ल ध्यान के शिखर पर आरूढ़ हो गए।
पर्वत के समान सर्वथा अडोल, अकम्प एवं अचल ऐसी अपूर्व स्थिरता को प्राप्त कर के शरीर और कर्म-बन्धनों को त्याग दिया
माघ कृष्णा त्रयोदशी के दिन अभिजित नक्षत्र का चन्द्र के साथ योग होने पर शेष चार अघाति (4 अघाति कर्म : 1. नाम, 2. गोत्र, 3. आयु और 4. वेदनीय) कर्मों का नाश करके भगवान ऋषभदेवजी मोक्ष में पधार गये। और उस अणु समय में ही लोकाग्र पर
पहुँच कर सिद्ध हो गए। भगवान इस देह का त्याग कर अजर, अमर अशरीरी परमेश्वर परमात्मा हो गए। पर पारिणामिक भाव
प्रकट कर के सादि अनन्त सहज आत्म-सुख के भोक्ता बन गए।
अनन्तानन्त गुणों के स्वामी प्रथम तीर्थेश ऐसे परमात्मा के प्रस्थान कर जाने पर देह, उजड़े हुए घर के समान सुनसान हो गया।
क्या करे अब उस देह का ? हाँ, यह ठीक है कि उससे जगदुद्धारक, अनन्त गुणों के भंडार परम पूज्य निवास कर चुके है। यह वही
पाँच सौ धनुष ऊँचा, वज्र ऋषभ नाराच संहनन और समचतुरस्त्र संस्थान संस्थित और परम शुभ लक्षणों से युक्त शरीर है। जिसकी
प्राप्ति करोड़ों मनुष्यों को नहीं होती, अरे, अनन्तान्त जीवों को नहीं होती। ऐसे अनन्त जीव मोक्ष पा चुके, जिन्हें वज्र-ऋषभ-
नाराच संहनन और प्रथम संस्थान तो मिला, किन्तु ऐसे उत्तमोत्तम लक्षणों से युक्त महाप्रभावशाली देह की प्राप्ति नहीं हुई। किन्तु
इसका महत्व उस महान् आत्मा के साथ ही था। इसके संहनन, संस्थान और लक्षण, उस आत्मा के कारण ही महत्व रखते थे।
उसके प्रस्थान करने के बाद इसका सारा महत्व लुप्त हो गया। हंस (आत्मा) – परमहंस चला गया और मानसरोवर सूना हो गया।
अब इसको उचित रीति से नष्ट कर देना ही बुद्धिमानी है।
यह वही शरीर है, जिसके द्वारा लाखों मनुष्यों का उपकार हुआ। परम्परा से असंख्य जीवों का उद्धार हुआ। इसको देखते ही
भव्य जीवों की प्रसन्नता का पार नहीं रहता था। जिनके दर्शन, श्रवण, वन्दन के लिए लोग तरसते थे। आज इस देह के होते हुए
भी वे लोग शोकाकुल होकर रो रहे हैं। क्यों ? इसलिए कि वह देहेश्वर, देह छोड़कर प्रयाण कर गया। अब यह घर सर्वथा सूना-
सूना हो गया। अब इस शरीर से उन परमात्मा का कोई सम्बन्ध नहीं रहा। वे उस परम प्रकाशमान परमात्मा के विरह से रो रहे हैं।
शुभ होते हुए भी उनमें परदृष्टि तो है। जब तक अपने में रहे हुए परमात्मस्वरूप आत्मा की परम दशा प्रकट नहीं होती, तब तक प्रभु
का अवलम्बन ही आधारभूत है। इस पर ज्योति के प्रकाश में अपनी सुसुप्त मन्दतम ज्योति भी क्रमशः सतेज की जा सकती है।
पहलवान व ताकतवर से शिक्षा पाकर एक बच्चा भी पहलवान, ताकतवर व अपराजित योद्धा बन सकता है।
चक्रवर्ती भरतेश्वरादि भव्यात्मा, उस देह-अखण्ड एवं परिपूर्ण देह के उपस्थित होते हुए भी परमात्मा विरह से दुःखी हो रहे थे-
रुदन कर रहे थे। उनकी आँखों से अविरल अश्रुधारा बह रही थी।
ग्रंथकार श्रीमद् हेमचंद्राचार्य लिखते हैं कि-“भगवान् के विरह का आघात नहीं सह सकने के कारण चक्रवर्ती सम्राट मूर्च्छित
हो गए । बहुत समय तक संज्ञाशून्य रहे।” वहाँ उनके सामने वही देह – अखण्ड एवं परिपूर्ण देह उपस्थित होते हुए भी वे अपना
संतोष नहीं कर के प्रथम तीर्थंकर, परम पिता परमेश्वर के विरह की वेदना से अपार दुःख का वेदन करने लगे।
प्रथम स्वर्ग का अधिपति शकेन्द्र, अपने देव विमान में आनन्द अनुभव कर रहे थे कि अचानक उनका आसन चलायमान हुआ।
वे स्तब्ध रह गए। अवधिज्ञान का उपयोग लगाया। उन्हें प्रथम तीर्थंकर जिनेश्वर वीतराग प्रभु श्री ऋषभदेव का विरह मालूम हुआ।
वे भी शोक मग्न हो गए और परिवार सहित अष्टापद पर्वत पर आये। उसी प्रकार सभी इन्द्र और देवी-देव आये। सभी की आँखों
में अविरल आँसू सभी रुदन रहे थे।
इस अवसर्पिणी काल के प्रथम जिनेश्वर देव श्री ऋषभदेव के उस शव को देवों ने स्नान कराया, वस्त्र पहिनाये और आभूषण भी
पहिनाये। इसके बाद श्रेष्ठ गोशीर्ष चन्दन से 3 चिताएँ रची गई-1. भगवान् श्री ऋषभदेवजी के लिए 2. गणधरों के लिए और 3.
शेष सभी साधुओं के लिए।
तीनों शिविकाओं को चिताओं में स्थापन कर अग्निकाय देव ने अग्नि उत्पन्न की। वायुकुमार देव ने वायु चला कर अग्नि को
सतेज कर प्रज्वलित किया। गोशीर्ष चन्दन की चिता में अगर, तगर, घृतादि डाला गया। चिताओं में शरीर जलकर भस्म हो गए।
फिर मेघकुमार देवों ने क्षीरोदक की वर्षा की। उसके बाद जिनेश्वर भगवान श्री ऋषभदेव की चिता में से शकेन्द्र ने ऊपर की दाहिनी
ओर की डाढ ग्रहण की, ईशानेन्द्र ने बाँयी ओर की, असुरेन्द्र चमर ने नीचे की ओर की दाहिनी और बलिन्द्र ने बाँयी ओर की डाढ
ग्रहण की। इसके बाद अन्य देवों ने शेष अस्थि-भाग ग्रहण किया।
सभी देवों ने मिल कर प्रथम तीर्थंकर भगवान का भव्य निर्वाण महोत्सव किया। इसके बाद उन डाढों आदि को ले कर स्वस्थान
आये और उन दाढ़ों को डिब्बों में रखकर उनकी अर्चना की।
उस समय इस अवसर्पिणी काल का तीसरा आरा समाप्त होने में 3 वर्ष साढे 8 महिने बाकी थे। जिस समय भगवान मोक्ष में
पधार गये। उसी समय में दूसरे 107 पुरुष और भी सिद्ध हुए। भगवान के साथ अनशन करने वाले दस हजार मुनि भी उसी नक्षत्र
में सिद्ध हुए जिसमें प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेवजी (श्री आदिनाथजी) भगवान मोक्ष में पधारे थे। इन्द्र तथा देवों ने तीर्थंकर प्रभु श्री
ऋषभदेव तथा अन्य सभी मुनियों का अन्तिम संस्कार किया। फिर नन्दीश्वर द्वीप में जाकर इन्द्र आदि सभी देवी-देवताओं ने
भगवान का निर्वाण-कल्याण महोत्सव मनाया।