कर्मबन्ध के चार भेद कहे गए हैं| ये चारों प्रकार के बन्ध उत्तरोत्तर गाढ़ – प्रगाढ़ होते जाते हैं –
1.स्पृष्ट कर्मबंध – यह बन्ध योग से होता है| यह स्पृष्ट या छुआ जैसा होता है| जैसे सुई के ढेर में जहाँ सुइयाँ परस्पर छुई हुई हैं, हाथ लगते ही ये सुइयाँ बिखर जाती हैं और इनका एक – दूसरे से सम्बन्ध शीघ्र ही टूट जाता है उसी प्रकार कर्मों का स्पृष्ट बंध होने से ‘मिच्छामि दुक्कड़ं’ आदि प्रायश्चित्त कर निर्जरा की जा सकती है|
दृष्टान्त – श्री प्रसन्नचन्द्र राजर्षि राजपाठ छोड़कर मुनि अवस्था को प्राप्त कर तप – ध्यान में लीन थे| तभी महाराजा श्रेणिक के दुर्मुख नामक दूत ने राजर्षि को देखकर कहा कि आपके राज्य पर शत्रु ने आक्रमण किया है| यह सुनकर ध्यानस्थ राजर्षि का चित्त आर्त्त – रौद्र में चला गया और वे शत्रु से मानसिक युध्द करने लगे और स्पृष्ट कर्मबंध बाँधे| जब उनका हाथ मुकुट फैंकने के लिए सिर पर गया तो उन्हें अपनी मुनि स्थिति का भान हुआ और उन्होंने अन्त : करण से प्रायश्चित्त कर जो कर्म स्पृष्ट बाँधा था, उसकी निर्जरा कर वे केवलज्ञानी बने|
2.बध्द कर्मबन्ध – इसमें कर्म परमाणु आत्मा में एक स्थान (जगह) पर उसी प्रकार एकत्रित हो जाते हैं, जिस प्रकार धाने से पिरोयी हुई बँधी हुई सुइयाँ इकट्ठी हो जाती हैं| इस प्रकार का कर्मबन्ध प्रतिक्रमण से दूर किया जा सकता है|
दृष्टान्त – एक बार वृध्द मुनियों के साथ बाल मुनि अतिमुक्तक वन में जा रहे थे| रास्ते में पानी से भरा गड्डा दिखाई दिया| बाल मुनि अपना लकड़ी का पात्र पानी में तैराते हुए क्रीड़ा करने लगे| तभी वृध्द मुनि वहाँ आए और कहा कि इस प्रकार की क्रीड़ा करना अपना धर्म नहीं है| बालक मुनि लज्जित हुए और अन्त : करण से प्रायश्चित्त लेकर प्रतिक्रमण किया व अपने बध्द कर्मों की निर्जरा कर ली|
3.निधत्त कर्मबन्ध – आत्मा का कर्मों के साथ प्रगाढ़ या अत्यन्त गहरा सम्बन्ध हो जाना निधत्त कर्मबन्ध है| जैसे सुइयों को आग में तपाकर और हथौड़े से पीटकर एक कर देना| कर्मों के इस प्रकार के बन्ध को बारह तपों से दूर किया जा सकता है|
दृष्टान्त – अर्जुनमाली एक यक्ष के अधीन होकर नित्य छह पुरूषों और एक स्त्री की हत्या करता था| एक दिन प्रभु महावीर के दर्शनार्थ सेठ सुदर्शन जा रहे थे| उनके भक्ति भाव से प्रभावित होकर यक्ष अर्जुनमाली के शरीर से निकल गया| अर्जुनमाली सेठ सुदर्शन के साथ प्रभु महावीर के पास पहुँचा| प्रभु के उद्बोधन से वह प्रतिबोधित हुआ और किए गए घोर पापों के लिए प्रायश्चित्त कर चारित्र धर्म को अंगीकार करते हुए दुर्धर तप किए और उपसर्गों को शान्त भाव से सहन करते हुए संचित पाप कर्मों और चार घाति कर्मों का नाश कर अन्ततोगत्वा केवलज्ञान को प्राप्त हुआ|
4.निकाचित कर्मबन्ध – जो कर्म आत्मा के साथ जिस रूप में बँधते हैं, उनका फल अवश्य ही भोगना पड़ता है, निकाचित कर्मबन्ध कहलाता है, जैसे – सुइयों को भट्टी में तपाकर तथा कूटकर एक गट्ठे के रूप में बनाना|
दृष्टान्त – महाराज श्रेणिक धर्म प्राप्त करने से पूर्व मिथ्यात्व अवस्था में थे| वह शिकार व्यसनी थे| एक दिन शिकार करते एक गर्भिणी हिरणी को तीर से बींध दिया| वह हिरणी गर्भ के साथ अत्यन्त वेदना – कष्ट से तड़पती रही किन्तु महाराज श्रेणिक यह देखकर हर्षित हुए और सौचने लगे कि मैं कितना बहादुर हूँ कि एक ही तीर से दोनों को आहत कर दिया| इस पाप कृत्य की अनुमोदना, प्रशंसा से उनका नरक आयुष्य का बन्ध गाढ़ निकाचित हो गया| कालान्तर में वे प्रभु महावीर के उपासक बने और सम्यक्त्व तथा तीर्थंकर नाम का उपार्जन किया परन्तु पूर्व में बँधा हुआ नरकायुष्य का निकाचि कर्म उन्हें भोगना ही पड़ा|