कालचक्र नियमित और निरन्तर है| संसार में रहने वाले जीव कालचक्र से सदा प्रभावित रहते हैं| संसार सतत गतिशील व परिवर्तनशील है| इस चराचर जगत् में उत्कर्ष और अपकर्ष का चक्र सदा शाश्वत है| इस चक्र को कालचक्र से प्रदर्शित किया जाता है| उत्कर्ष काल को उत्सर्पिणी काल तथा अपकर्ष काल को अवसर्पिणी काल कहते हैं| इस प्रकार कालचक्र के मुख्यत: दो भाग हो जाते हैं| अवसर्पिणी काल – इस काल में क्रमश : शुभ पुद्गलों की हानि और अशुभ पुद्गलों की वृध्दि होती है| उत्सर्पिणी काल – इसमें उत्तरोत्तर शुभ पुद्गलों की वृध्दि तथा अशुभ पुद्गलों का ह्रास होता जाता है| कालचक्र के दोनों काल का एक चक्र पूरा हो जाने पर एक कालचक्र होता है| एक कालचक्र की अवधि बीस कोड़ाकोड़ी सागर बतायी गई है|
अवसर्पिणी काल – यह छह भागों में इस प्रकार से अभिव्यक्त है –
सुषम – सुषम
सुषम
सुषम – दु:षम
दु:षम – सुषम
दु:षम
दु:षम – दु:षम
सुषम – सुषम :- अवसर्पिणी काल के इस प्रथम आरे में मनुष्य युगलिक रूप में उत्पन्न होते हैं| इनका शरीर 256 पसलियों से युक्त तीन कोस का और आयु तीन पल्योपम होती है| इसमें सुख ही सुख रहता है| मनुष्य की इच्छाएँ कल्पवृक्षों से पूरी होती हैं| इस आरे की अवधि चार कोड़ाकोड़ी सागर की मानी गई है|
सुषम :- प्रथम आरे के समाप्त हो जाने पर तीन कोड़ेकोड़ी सागर का दूसरा प्रारम्भ होता है| इस आरे के मनुष्य के शरीर 128 पसलियों से युक्त दो कोस का तथा आयु दो पल्योपम होती है| इसमें पहले आरे की अपेक्षा मनुषय कम सुखी होते हैं, शेष बातें पहले आरे के मनुष्यों की तरह ही हैं|
सुषम – दु:षम – दूसरा आरा समाप्त हो जाने पर यह दो कोड़ाकोड़ी सागर का यह आरा प्रारम्भ होता है| इसमें सुख अधिक और दु:ख कम होता है| मनुष्यों का शरीर 64 पसलियों से युक्त एक कोस का होता है और आयु एक पल्योपम की होती है| इस आरे के बीतने में 84 लाख पूर्ण 3 वर्ष साढ़े आठ माह शेष रह जाते हैं, तब प्रथम तीर्थंकर देव का जन्म होता है| एक चक्रवर्ती भी इसी आरे में जन्म लेता है|
दु:षम – सुषम – यह आरा 42 हजार वर्ष कम एक कोड़ाकोड़ी सागर का होता है| इसमें मनुष्य युगलिकों के रूप में जन्म नहीं लेते हैं| इनका शरीर पाँच सौ धनुष का होता है| इसमें शेष 23 तीर्थंकरों, 11चक्रवर्तियों, नौ बलदेवों, नौ वासुदेवों और नौ वासुदेवों और नौ प्रतिवासुदेवों का जन्म होता है|
दु:षम – यह आरा 21 हजार वर्ष का है| अन्तिम तीर्थंकर के मोक्ष गमन के बाद यह आरा आरम्भ होता है| इसमें मनुष्यों का शरीर सोलह पसलियों से युक्त सात हाथ का होता है और सायु 125 वर्ष की होती है| कषायों आदि की वृध्दि तथा धर्म का ह्रास होने लगता है| वर्तमान में यही आरा गतिमान है|
दु:षम – दु:षम – यह आरा 21 हजार वर्ष का माना गया है| इसमें दु:ख ही दु:ख है| इसमें मनुष्यों का शरीर आठ पसलियों से युक्त एक हाथ होना बताया गया है| लोग धर्म और पुण्य से रहित होंगे|
उत्सर्पिणी काल – अवसर्पिणी काल के बाद उत्सर्पिणी काल उदय में आता है| इसके भी छह आरे हैं- 1. दु:षम – दु:षम, 2. दु:षम, 3. दु:षम – सुषम, 4. सुषम – दु:षम, 5. सुषम, 6. सुषम – सुषम|
इनमें पहला, दूसरा आरा 21-21 हजार वर्ष का, तीसरा आरा 42 हजार वर्ष का, चौथा आरा 2 कोड़ाकोड़ी सागरोपम का, पाँचवाँ आरा 3 कोड़ाकोड़ी सागरोपम का तथा छठवाँ आरा 4 कोड़ाकोड़ी सागरोपम का माना गया है| इन आरों में रहने वाले मनुष्यों का शरीर, आयु, आहारादि क्रमश : पुष्ट व नियमित तथा दु:ख व अधर्म आदि सभी क्रमश : ह्रासोन्मुख होते हैं| मनुष्य दु:ख से सुख की ओर क्रमश : बढ़ता है| वह फिर से पहली वाली स्थिति में पहुँच जाता है| समस्त पृथ्वी सर्वोत्कृष्ट समृध्दियों से सम्पन्न होती जाती है| मनुष्यों को पुन : कल्पवृक्ष मिल जाते हैं|