कषाय जीवात्म को कलुषित करते हैं, जिससे जीवात्मा चारों गतियों में बार – बार जन्म और मरण को धारण करता है| राग – द्वेषजन्य परिणतियाँ कषाय कहलाती हैं| जब तक कषाय जीवात्मा के साथ बँधे हुए हैं तब तक जीव मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकता आर्थात् संसार में आवागमन का द्वार खुला रहता है |
कषाय के मुख्यत: चार भेद निरूपित हैं –
1. क्रोध कषाय,
2. मान कषाय,
3. माया कषाय,
4. लोभ कषाय|
इनमें माया और लोभ कषाय का कषाय का उद्गम राग है और क्रोध – मान कषाय का उद्गम द्वेष है | इन चारों कषायों की स्थिति और अनुभावादि की अपेक्षा से चार – चार भेद बताए गए हैं| इस प्रकार इन चारों कषायों के कुल सोलह भदे हैं| – 1. क्रोध-मान-माय-लोभ की अनन्तानुबंधी कषाय, 2. क्रोध-मान-माय-लोभ की अप्रत्याख्यानीय कषाय, 3. क्रोध-मान-माय-लोभ की प्रत्याख्यानीय कषाय, 4. क्रोध-मान-माय-लोभ की संज्वलन कषाय|
- क्रोध कषाय – जीवात्म के क्षमा गुण को आवरित कर क्रोध पैदा करने वाला कषाय क्रोध कषाय कहलाता है| इस कषाय के रहते जीवात्मा के विवेक का लोप हो जाता है| इस कषाय के तीव्रता – मंदता के आधार पर चार भेद हैं-
- अनन्तानुबन्धी क्रोध– यह कषाय इतनी तीव्र होती है कि वह जीवात्मा के साथ कर्मों को अनन्तकाल तक बाँधे रखती है| इसकी तुलना पर्वत की दरार से करते हैं | जिस प्रकार पर्वत की दरार को मिटाना सरल नहीं होता है , उसी प्रकार यह अनन्तानुबंधी क्रोध भी शान्त नहीं हो पाता है|
- अप्रत्याखयानीय क्रोध– इस कषाय की प्रकृति और स्थिति पहले की अपेक्षा कुछ कम है| इस कषाय का काल एक वर्ष का है | इससे अधिक होने पर वह अनन्तानुबन्धी क्रोध में परिणत हो जाता हैं| इस कषाय की समानता पृथ्वी पर पड़ी हुई दरार से की है, जिसे पुरूषार्थ के द्वारा मिटाया जा सकता है|
- प्रत्याख्यानीय क्रोध – इस कषाय की प्रवृत्ति और स्थिति चार माह की है| इसमें जीवात्मा साधु व्रत अंगीकार करनें में असमर्थ रहता है | इसकी समानता रेत या बालू पर खींची गई लकीर या रेखा से गई है जो हल्की हवा से ही मिट जाती है | थोड़े से प्रयास से ही इसे शान्त किया जाता है|
- संज्वलन क्रोध – इस कषाय की प्रवृत्ति और स्थिति पन्द्रह दिन की है | इसके रहते साधक की चित्त समाधि नहीं हो पाती | यह केवल ज्ञान – दर्शन में बाधा उत्पन्न करता है साथ ही यथाख्यात चारित्र का घात भी इससे हो जाता है | इसकी सामानता पानी में खींची गई लकीर या रेखा से की गई है जो शीघ्र ही जल में विलीन हो जाती है | यह विशेष प्रयास किए बिना ही सहज शान्त हो जाता है|
- मान कषाय – जीवात्मा के अहंकार , अभिमान को मान कषाय कहते है| इस कषाय के रहते जीवात्मा में स्व-पर का विवेक समाप्त हो जाता है तथा पदार्थों के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान भी नहीं हो पाता है | क्रोध कषाय की तरह इसके भी चार भेद हैं-
- अनन्तानुबंधी मान कषाय – इस कषाय की समानता पत्थर के स्तम्भ से की गई है जो कभी झुकता नहीं है| इसी प्रकार यह कषाय भी विचलित नहीं होता|
- अप्रत्याख्यानीय मान कषाय– इस कषाय की समानता अस्थि- स्तंभ से की गई है जिसे विशेष प्रयास से नमाया या झुकाया जा सकता है|
- प्रत्याख्यानीय मान कषाय– इस कषाय की समानता काष्ठ- स्तंभ से की गई है जो तेल- पानी आदि थोड़े उपाय या प्रथत्न से नमाया जा सकता है|
- संज्वलन मान कषाय– इस कषाय की समानता बेंत के स्तंभ से की गई है जिसे सरलता से नमाया जा सकता है| यह कषाय बिना प्रयास के वृक्ष की लता की तरह स्वत: झुक या विनमित हो जाती है|
(3) माया कषाया – माया कषाय जीवात्मा के ऋजुप्रज्ञा गुण को आच्छादित कर वक्रता – कुटिलता अर्थात् माया को पैदा करता है| माया से सद्गति का नाश होता है| जहाँ कपट या मायाचार होता है वहाँ सम्यक्त्व टिक नहीं सकता| सम्यक्त्व का अधार ही है सरलता| आगमों में माया कषाय के चार भेद बताये गये हैं –
1.अनन्तानुबंधी माया कषाय – इस कषाय की समानता बाँस की जड़ या गन्ने से की गई है, जिसके पूरे शरीर में गाँठ – गँठीलापन होता है| कहीं से भी सीधा नहीं होता| इसी तरह कुछ व्यक्ति भी धूर्त्त व मायावी – कपटी होते हैं जो अपनी वक्रता कभी नहीं छोड़ते|
2.अप्रत्याख्यानीय माया कषाय – इस कषाय की समानता मेढ़े के सींग से की गई जो जड़ से ही टेड़ा – मेड़ा होता है| किन्तु इसकी वक्रता बाँस की जड़ या गन्ने से कुछ कम होती है| कभी कभार भूल – चूक से यह सीधा भी हो जाता है|
3.प्रत्याख्यानीय माया कषाय – इस कषाय की समानता बैल के मूत्र या गौ – मूत्र की धार से की गई है| गाय या बैला चलते – चलते जब मूत्र करते हैं तो उसकी धार तिरछी पड़ती है परन्तु उसकी वक्रता बहुत साधारण होती है| देखने पर भी उसकी वक्रता का पता नहीं चलता है| इसी प्रकार कुछ व्यक्ति स्वभाव से वक्र नहीं होते, किन्तु परिस्थितिवश कपटी व धूर्त्त बन जाते हैं| आत्म – ग्लानि से उनमें सुधार की संभावना रहती है|
4.संज्वलन माया कषाय – इस कषाय की समानता बाँस की छाल से की गई है| जैसे बाँस को, गन्ने को चाकू से छीलने पर उसकी पतली छाल गोल छल्लेनुमा बन जाती है परन्तु उसकी वक्रता ज्यादा देर नहीं टिकती| दबाने या खींचने से जल्दी ही वह सहज हो जाता है|
(4) लोभ कषाय – लोभ का अर्थ है असंतोष | लोभ कषाय जीवात्मा को काम – भोंगों और तृष्णा – लालसा में फँसाते है| लोभग्रस्त आत्मा लोभ के कटु परिणामों को समझता हुआ भी उससे मुक्त नहीं हो पाता | उसका शुध्द स्वरूप प्रकट नहीं हो पाता| इस कषाय के चार भेद हैं –
1.अनन्तानुबंधी लोभ कषाय – इस कषाय की समानता किरमची रंग से की गई है जो एक बार कपड़े पर चढ़ने पर कभी मिटता नहीं है| इस प्रकार के लोभ पर उपदेश, ज्ञान शिक्षा आदि प्रभाव नहीं डाल सकते हैं|
2.अप्रत्याख्यानीय लोभ कषाय – इस कषाय की समानता कीचड़ से की गई है| जिस प्रकार वस्त्र पर कीचड़ के छींटे पड़ने पर कई बार धोने और कई बार रगड़ने पर बड़ी मुश्किल से साफ होता है, उसी प्रकार यह कषाय निरन्तर सत्संग, उपदेश और त्याग – वैराग्य की रगड़ आत्मा पर लगने से धीरे – धीरे कम होता जाता है|
3.प्रत्याख्यानीय लोभ कषाय – इस कषाय की समानता अंजन राग रंजित वस्त्र के उदाहरण से की गई है| अंजन अर्थात् काजल को दो – चार बार धोने से साफ हो जाता है, उसी प्रकार यह कषाय भी थोड़े – बहुत प्रयत्न करने से, गुरूजनों के उपदेश सुनने से, शास्त्राध्ययन करने से कम हो जाता है|
4.संज्वलन लोभ कषाय- इस कषाय की तुलना हल्दी के रंग से की गई है| हल्दी का रंग पीला होता है, यदि कपड़ा इस रंग में रंग जाता है तो उस पर पीलापन आ जाता है, परन्तु सूर्य की रोशनी पड़ते ही अपने आप पीलापन उड़ जाता है| ऐसा निष्काम, निर्मल ह्रदय संज्वलन लोभ वाला जब तक इस लोभ की स्थिति में रहता है, देवगति का अधिकारी होता है| यदि वह इस लोभ का सम्पूर्ण नाश कर वीतराग बन जाता है, तो इसी भव में मुक्त होता है|
इस प्रकार कषाय और उनके भेदों से मनुष्य अपने को सावधान रखता हुआ स्व – स्वभावी होकर आत्म-कल्याण पथ पर सदा अग्रसर रहता है|