राष्ट्र के प्रति साधु-संतों का योगदान अद्वितीय : अरिहंतसागरसूरीश्वरजी

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जैन समय । बेंगलूरु | आचार्य श्री अरिहंतसागरसूरीश्वरजी म.सा. की निश्रा में आयोजित मुमुक्षु खुशीजी जीरावला का वर्षीदान शोभायात्रा के समापन पर प्रवचन के दौरान आचार्य श्री ने दीक्षा लेनेवालों के सामाजिक योगदान पर प्रकाश डालते हुए कहा कि दीक्षा स्व उपकार और पर उपकार है। आंकड़ों पर नजर डालें तो पिछले पांच वर्षों में करीब दो हजार से ज्यादा प्रतिभाशाली लोगों ने अपना सांसारिक जीवन छोड़ जैन दीक्षा अंगीकार की है। साधु के जीवन में परोपकार अनायास ही गूंथा हुआ है। वह समाज में अपने उपदेश द्वारा संस्कारों का सींचन कर लोगों के हृदय को निर्मल बनाता है और इससे सामाजिक संतुलन बना रहता है। उदाहरण के लिए समाज में अपराध के बढ़ने का कारण है व्यक्ति का मानसिक दूषण, मन में उठने वाली खराब इच्छाएं। जिस अपराध को नियंत्रित करने और समाज में कानून व्यवस्था बनाए रखने हेतु सरकार हर वर्ष करोड़ों का बजट बनाती है उसे नियंत्रित रखने में साधु-संतों की भूमिका अनायास ही सिद्ध होती है। साधु संत दिन रात मेहनत करके, बडी लगन से, धैर्य से शास्त्रों का पठन करके, चिंतन करके, एक पैसा लिए बिना अपने और समाज के मनोविकारों से लड़ते हैं। सही, गलत, अच्छे, बुरे का भेद बताकर, कर्तव्यों का एहसास दिलाकार, न सिर्फ व्यक्ति की सोच का बल्कि उसके हृदय का भी परिवर्तन करके उसे जीने की सही दिशा दिखाते हैं। सदाचार, सज्जनता के उपदेश द्वारा अनेकों के जीवन में से अपराध, मन में से आपराधिक वृत्ति को नष्ट करने वाले साधु संतों का उपकार किसी मनोचिकित्सक या पुलिस के योगदान से कम नहीं है।