अणगार-श्रमण, संत किसे कहा जाय? इसका उत्तर सीधी भाषा में दें तो जिसकी पकड़ शिथिल हो गई हो। जो किसी की बुराई को गांठ बांध कर नहीं रखता हो। श्रमण की बात ही क्या करें, यदि सज्जन पुरुष का परिचय करना हो तो यह जान लो कि जो दूसरों की बुराई नहीं, अच्छाई देखता हो। किसी का करना है तो भला करना, बुरा किसी का नहीं करना।
सहज प्रश्न होगा कि मानव स्वभाव है कि कोई उसकी बुराई करे तो उसे सहा नहीं जाता। उसके कारण मन में ऊहापोह हो ही जाता है। मुंह से कोई बोले या न बोले, पर मन में इसका असर आ ही जाता है। आ ही जाता है, यह नहीं कह सकते। पर, बहुतों के मन में असहजता आ जाती है। कुछ लोग ही ऐसी धातु के बने होते हैं कि उनकी कोई कितनी भी बुराई करे, वे अपने मन में उसका असर होने ही नहीं देते। ऐसे लोग विरल ही होते हैं, ऐसा कह सकते हैं। जो ऐसे होते हैं, वे ही विशिष्ट होते हैं।
सज्जन का अर्थ ही है सतजन। यानी जो सत् को जान गये होते हैं। ऐसे जो पुरुष होते हैं, वे आत्म-परिणति में मुख्य रूप से रमण करने वाले होते हैं।
संत की परिभाषा होगी कि जो शान्त रहे, चाहे कोई कितना भी उसे जलील करे, उसकी संतता उत्तर नहीं देती। उनके साथ भले ही कोई बुरा बर्ताव करे पर वे किसी के साथ बुरा बर्ताव नहीं कर सकते। उनका व्यवहार किसी को बुरा लग सकता है, यह बात अलग है। लेकिन, उनके भाव-विचार किसी का बुरा करने के नहीं होते। तीर्थंकर देवों के व्यवहार से कई लोग असन्तुष्ट हो सकते हैं। उनको उनका व्यवहार भाता नहीं है। तब भी तीर्थंकर देव उनके प्रति बुरा नहीं करते। इसी प्रकार संत का जीवन भी होना चाहिये। संत का जीवन चन्दन की तरह होता है जो घिसने पर भी सुगन्ध ही देता है। उसे जितना रगड़ो उसमें से सुगन्ध ही बिखरेगी। घिसने वाले के हाथ को भी वह सुगन्ध से सराबोर कर देता है। अतः संत ग्रन्थि बना कर नहीं रखते। इसी कारण वे शान्त होते हैं, संत होते हैं।
साभार: ‘ब्रह्माक्षर’