अति पुण्य प्रभाव से देवगति में जन्म लेने वाले जीव देव कहलाते हैं| देवों का शरीर दिख्यता से सदा मण्डित रहता है| इनका वैक्रिय शरीर होता है| इन देवों की यह विशेषता है कि इनका शरीर रक्त – माँस – मज्जा से नहिं बना होता है और न ही इनके शरीर की छाया ही पडती है| देव मनचाहा रूप धारण करने की शक्ति रखते है|
देव चार प्रकार के कहे गए हैं –
- भवनपति,
- व्यंतर ,
- ज्योतिष्क, और
- वैमानिक देव|
इन चारों प्रकार के देवों के भी उत्तर भेद हैं|
- भवनपति देव – इनमें भवनवासी देव रत्नप्रभा पृथ्वी के 12 अंतर में से ऊपर से एक अन्तर और नीचे के एक अन्तर छोड़कर शेष 10 अन्तरों में निवास करते हैं| वहाँ भवनों में रहने के कारण भवनवासी कहलाते हैं| इनके मुख्यात : दो भेद हैं – एक असुरकुमार देव और दूसरे परमाधामी देव| पहले प्रकार के देवों में ‘कुमार’ शब्द इसलिए लगा रहता है क्योंकि ये देव मन को हरने वाले, क्रीड़ा प्रिय तथा सुकुमार होते हैं| इनके दस भेद हैं| दूसरे प्रकार के भवनवासी देव परमाधामी देव हैं| ये रौद्र परिणाम वाले होते हैं तथा नारकी को कष्ट देकर प्रसन्न होते हैं| इनके पन्द्रह भेद हैं| इस प्रकार भवनपति देवों के 10 + परमाधामी देवों के 15 – 25 भेद हैं|
- व्यंतर देव – व्यन्तर देव रत्नप्रभा पृथ्वी के एक हजार योजन के ऊपर – नीचे के सौ – सौ योजन छोड़कर मध्य के आठ सौ योजन भाग में निवास करते हैं| ये देव चपल स्वभावी होते हैं और इधर – उधर गमनागमन करते रहते हैं| व्यन्तर देवों के तीन भेद हैं –
1.व्यन्तर देव,
2.वाणव्यन्तर देव,
3.जृंभक देव|
व्यन्तर और वाणव्यन्तरों की संख्या सोलाह बतायी गई है| व्यन्तर देवों में तीसरे प्रकार के देव जृंभक देव हैं| ये दिन के चारों प्रहर व संध्या में पृथ्वीतल पर अदृश्य रूप से ‘हुज्जा – हुज्जा’ शब्द का उच्चारण करते हुए विचरण करते रहते हैं| इनकी दस जातियाँ या भेद हैं| इस प्रकार व्यन्तर देवों के कुल छब्बीस भेद निरूपित हैं|
- ज्योतिष देव – ये पृथ्वी से ऊपर सात सौ नब्बे योजन से लेकर नौ सौ योजन तक निवास करते हैं| ये मुख्यत : दो प्रकार के होते हैं – 1.मनुष्य क्षेत्र ढाई द्वीप के बाहर निवास करने वाले स्थिर या अचर ज्योतिष्क देव, 2. ढाई द्वीप में निवास करने वाले अस्थिर या चर ज्योतिष्क देव चर ज्योतिष्क देव मेरू पर्वत के चारों ओर सदा प्रदक्षिणा करते रहते हैं| दोनों प्रकार के देवों के क्रमश : पाँच – पाँच भेद हैं| यथा – 1.चन्द्र , 2. सूर्य , 3. ग्रह, 4. नक्षत्र , 5. तारा| इस प्रकार के ज्योतिष्क देव के कुल दस भेद हैं|
- वैमानिक देव – ऊर्ध्वलोक में विमानों में निवास करने वाले वैमानिक देव हैं| इनके दो भेद हैं- 1. कल्पोपन्न देव (जहाँ कल्प आचार मर्यादा हो), 2. कल्पातीत देव (जहाँ कल्प का व्यवहार न हो)| कल्पोपन्न देव बारह प्रकार के हैं| कल्पातीत देव दो प्रकार के हैं| इनके अतिरिक्त नौ लोकान्तिक देव तथा तीन किल्विषिक देव (अधम जाति के देव) भी वैमानिक देवों में परिगणित हैं| इस प्रकार वैमानिक देव के कुल अड़तीस भेद निरूपित हैं|
संक्षेप में देवों के बेद इस प्रकार हैं = 25 भवनपति देव + 26 व्यंतर देव + 10 ज्योतिष्क देव + 38 वैमानिक देव = 99 देव| ये 99 पर्याप्त और 99 ही अपर्याप्त देवों में विभक्त हो जाने पर इन देवों के कुल 198 भेद हैं| इन देवों के माधय्म से देवों की स्थिति, निवास तथा उनकी विशेषताओं का परिचय मिलता है|